मंगलवार, 2 मई 2017

इधर फेसबुक पर चर्चित हुयी कुछ रचनाएं ...

कविता : एक बयान

तुम्हारी रसोई में वह जो बचा हुआ खाना है न! वही जिसे तुम मोहल्ले वालों की नजर बचाकर कूड़ेदान में फेंक आए हो, बस उतने ही खाने के लिए उस रोते हुए मासूम की माँ किसी शराबी के साथ फुटपाथ पर सो जाने को मजबूर है। बस उतने से ही खाने ने न जाने कितने ही चेहरों के निर्दोषपन को हर लिया है। बस उतने से खाने ने न जाने कितने दिलों को अलग-अलग धूरियों पर पहुंचा दिया है!
वो जो एक छोटी सी गड्डी तुमने अभी- अभी अपनी आलमारी की तिजोरी में हलके हाथों से फेंकी है न! बस उतने से ही पैसे के लिए न जाने कितने ही किसानों ने आत्महत्याएं की है! रोज न जाने कितने ही आँखों के सपने टूटे हैं बस उतने ही पैसों के लिए। बस उतने से ही पैसों के फर्क ने न जाने कितने ही वर्ग-संघर्ष पैदा किए और करते जा रहे हैं!
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तुम्हें स्वाद के लिए खाना है, उन्हें भूख के लिए
तुम्हें घूमना-फिरना है, मनोरंजन करना है, फैशन में बने रहना है; उन्हें अपनी जरूरतें पूरी करनी है
तुम्हें जिंदगी के सारे सुख भोगने हैं, उन्हें किसी तरह ज़िंदा रहना है
तुम कहते हो कि सब कुछ तुमने अपनी योग्यताओं से अर्जित किया है और अर्जन ही तुम्हारी सफलता है, उन्हें लगता है कि उन्हें बराबर मौके नहीं मिले, योग्य बनने का अवसर नहीं दिया गया, अर्जन की जगह अर्चन ही जिंदगी का सूत्र बना दिया गया...
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तुम डकारते हो और सहानुभूति, करुणा, दया, क्षमा, सेहतमंदी, अक्लमन्दी, इंक़लाब, क्रांति, समानता, बराबरी जैसे शब्दों के अंबार लगा देते हो
उनके पास खिन्नता, दुःख, पीड़ा, संकट, तकलीफों, उदासियों और अनमनेपन के कई छोटे-बड़े पहाड़ हैं, जिन पर उतरते चढ़ते वे तुम्हारे प्रवचनों पर तालियां और सीटियां बजाते रहते हैं
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तुम्हें लगता है तुम बस उनके ही बारे में सोचते हो
उन्हें लगता है कि तुम उनके सहारे अपने आप को स्थापित करने की जुगत में लगे रहते हो, कभी कला में, कभी शिल्प में, कभी साहित्य में, कभी बहस और मुबाहिसों में तो कभी-कभी कॉफ़ी हॉउसों में
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तुम्हारे पास इतनी अक्ल पैदा हो ही जाती है कि तुम देह-अदेह के विभक्तिकरण और व्याकरण को समझ जाने का दम्भ भरने लगते हो, दैहिक सौंदर्य के साथ मानसिक सौंदर्य और उसके सेहत के शास्त्र तुम तैयार कर लेने का मुगालता आसानी से पाल सकते हो
उनके लिए देह ज़िंदा रहने का बायस है, मानस अपनी जरुरत को पहचानने और पकड़ने की चीज तथा सेहत और सौंदर्य ज़िन्दगी में एकाध बार किये जाने वाला तीर्थ
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तुम किसी को मरते हुए देखते हो और सोचते हो कि मृत्यु देखी
तुम शरीर की हरकतों को विवेक की संज्ञा देते हो
तुम्हारे लिए अँधेरा और रौशनी एक-दूसरे के विपर्यास हैं
तुम खुद भी एक दिन मर जाते हो
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उन्हें तो ज़िंदा ही मर-मर कर रहना होता है
मुझे तो ज़िंदा ही मर-मर कर रहना होता है
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पुष्पेन्द्र फाल्गुन, अक्षय तृतीया, 2017
#एक_बयान

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कविता 2 : मैं कलम मज़दूर

मैं कलम मज़दूर यही मेरा परिचय
एक बेहतर और सच्ची दुनिया बनाने का
स्वप्न भर नहीं देखता मैं
ईमानदारी से उस स्वप्न को पूरा करने की जद्दोज़हद में
सींचता हूँ अपना आज अपने लहू से
दुनिया के हर मज़दूर की तरह
उदासीनता मेरे चेहरे का स्थायी ठिकाना है
हालाँकि उदासी भी है मेरे चेहरे पर कुछ-कुछ अमिट होती हुई
तुम्हारे तिरस्कार और उपेक्षा से नहीं
बेहद कम मिलती मजूरी से भी नहीं
उदासी इसलिए है कि
तुम्हें अभी तक एहसास नहीं करा पाया मैं
कि आने वाले कल का
सूरज, धरती, पानी, हवा, चिरैया
हम सब की साझा है
हम सब की आशा है
मैं जानता हूँ कि
तुम मेरी सहजता को मेरी कमजोरी समझते हो
मुझ पर मेरे हालात पर हँसते हो, लतीफे गढ़ते हो
मेरे बच्चों की उम्मीदों पर टेढ़ी नज़र रखते हो
अपनी गोल-मोल बातों से तुम बारम्बार मुझे छलते हो
मौका मिलते ही मुझे याचक सिद्ध करना तुम्हारा धर्म है जानता हूँ
फिर भी तुम्हें बख्शता हूँ कि कहीं इंसानियत तुमसे नाराज न हो जाए
तुम्हारे लिए उतना ही सुन्दर
उतना ही बेहतर रचता - परसता हूँ
जितना कि उसे होना ही चाहिए
मैं कलम मज़दूर हूँ
इसलिए नीयतमंद हूँ
उतना ही नीयतमंद
कि जितना नीयतमंद हो सकता है
एक मजदूर, एक किसान, एक कवि, एक स्वप्नद्रष्टा
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पुष्पेन्द्र फाल्गुन, मई दिवस, 2017
#मैं_कलम_मजदूर
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हिन्दी के प्रसिद्ध कवि- चित्रकार भाई रोहित रूसिया पर लिखी यह कविता

कविता 3 : इस शख्स को गौरैया भी पहचानती है

१).
उनकी छरहरी काया में श्रित वय दृष्टि
जब किसी बेहतरीन कविता पर जाकर ठहर जाती है
तब उनके साथ चलती गौरैया भी चहक कर वही रुक जाती है

वह कविता को अपने सधे हाथों से पेंटिंग की शक्ल देते हैं
गौरैया उस पेंटिंग में ठीक उसी जगह जाकर बैठ जाती है
जहाँ कविता में बिंब अपने सघन रुप में मौजूद होता है

आप गौरैया के जरिए
रोहित रूसिया के चित्रों में
आसानी से पहचान सकते हैं
देश के किसी भी बड़े कवि की कविताओं के बिंब

गौरैया
रोहित रूसिया को भी अच्छी तरह पहचानती है

२).
काष्ठ छापों में कुरेदकर सहेजी गई जाने कितनी पारंपरिक कलाएं
दशकों से जेसे रोहित रूसिया की आस में सहती रही धूप,पानी, सर्दी और अवहेलना
पकड़कर उनकी उंगलियां गौरैया ले गई थी
छपने को आतुर उन काष्ठाकुंद कलाओं के पास

रूप देना रोहित को आता ही है
कॉटन फैब के नाम से जो भी हैं अपरिचित
उनकी आँखें
देखना एक दिन,
दर्जनों कारीगरों के घरों के चूल्हे से उठते धुएं में
ढूँढ़ेंगी अपने पैरहन के विन्यास

३).
दूर सतपुड़ा की पहाड़ियों से रोज सुबह के सूरज के साथ
उतरती है न जानें कितनी ही जरूरतें
जिन्हें जल्दी होती है रोहित या उनके भाई तक पहुँचने की
दोनों रुसिया भाई
सामाजिकता के भरोसे को बरसों से निभाते हुए
पूरी करती जाते हैं सारी जरूरतें उस सूरज की
जिसे शाम ढलने से पहले वापस सतपुड़ा की पहाड़ियों पर लौट जाना है

4).
पिता से विरासत में मिली हैं उन्हें कूची और किताबें
माँ से संवेदना के संरक्षण की सीख उनकी थाती है
संगत ने उनकी समझ को कई-कई आयाम दिए हैं
आशा उनकी दिनचर्या को नए वितान देती है
कविता से प्यार
गौरैया भूलने नहीं देती
और उनके नवगीत के ताजा शोले
दुनिया के हर अन्याय के खिलाफ मशाल बन जाते हैं

5).
हो सकता है कि आप न पहचानते हों रोहित रूसिया को
गौरैया इस शख्स को भली-भांति पहचानती है

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पुष्पेन्द्र फाल्गुन
02052016

खान-पान के अहम् फाल्गुन नियम

प्रतीकात्मक पेंटिंग : पुष्पेन्द्र फाल्गुन  इन्टरनेट या टेलीविजन पर आभासी स्वरुप में हो या वास्तविक रुप में आहार अथवा खान-पान को लेकर त...