मंगलवार, 23 अक्तूबर 2012

एक नई ग़ज़ल पेश-ए-नज़र है ...



उनके लिए शौक़-ए-इज़्हार है हुनर
मेरी तो ज़िन्दगी की अब्सार है हुनर 

कितने ही सवालात जीता हूँ, पीता हूँ 
मेरे लिए होता हुआ एतबार है हुनर 

मुकम्मल का हिस्सा तुम्हें लगता हूँ
मेरे हिस्से-हिस्से में यलगार है हुनर  

ओट से देखने की फितरत क्यों पालें 
जब बेजल्व-ए-कराती दीदार है हुनर

यही ख़ुशफ़हमी उन्हें देती तसल्ली है 
कि फ़ुवाद सा हमारा बे ज़ार है हुनर 

मिलेंगे उनसे तो बतायेंगे ये फाल्गुन 
कि प्यार की ही तरह मेरा यार है हुनर 

                       - पुष्पेन्द्र फाल्गुन 


इज़्हार = अभिव्यक्ति 
अब्सार = आँख
एतबार = भरोसा 
मुकम्मल = संपूर्ण 
यलगार = विद्रोह 
फितरत = प्रवृति 
बेजल्व = बिना दिखावे के 
दीदार = दर्शन 
फ़ुवाद = हृदय, दिल 

सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

बहुत दिनों बाद एक ग़ज़ल मुकम्मल हुई है, ज़रा गौर फरमाएं ...


वह शख्स जो किसी मस्जिद-मंदिर नहीं जाता 
दरअसल वह आदमी किसी के घर नहीं जाता 

मस्जिद-ओ-मंदिर में अब जो भीड़-शोर-सोंग है
मैं तो मैं अब वहाँ कोई खुदा-ईश्वर नहीं जाता   

मिलाया हाथ, लगाया गले, दी तसल्लियाँ तुमने
तुम्हारे प्यार का शुक्रिया पर मेरा डर नहीं जाता 

बदला, ओढ़ा, रगड़ा, तोड़ा और कितना मरोड़ा
क्या करूँ कि तेरे ऐतबार का असर नहीं जाता 

पीने को पानी नहीं, खाने को दाना नहीं फिर भी 
तुझसे मेरा दिल ऐ ज़िन्दगी क्यों भर नहीं जाता 

मिलने पर जो आदमी देख चौंके तुम्हें फाल्गुन 
समझना उसके घर आदमी अक्सर नहीं जाता  

                                   - पुष्पेन्द्र फाल्गुन 
                                     15 अक्तूबर 2012

खान-पान के अहम् फाल्गुन नियम

प्रतीकात्मक पेंटिंग : पुष्पेन्द्र फाल्गुन  इन्टरनेट या टेलीविजन पर आभासी स्वरुप में हो या वास्तविक रुप में आहार अथवा खान-पान को लेकर त...