मंगलवार, 25 मार्च 2014

लघु कथा


थप्पड़ 

कुमारी दिया मिश्रा की डिजिटल पेंटिंग 'सिटी' 

यह उस समय की बात है जब शहरों में नए-नए कंक्रीट के जंगल उगने शुरू हुए थे। सड़क के किनारे के पेड़ इसलिए काट दिए गए थे कि उनसे कंक्रीट के तीन, पांच, सात मंजिला इमारतों की शोभा बिगड़ती थी। घरों के भीतर के पेड़ इसलिए काटे गए थे कि उनसे इन इमारतों को ऊँचा बनाने में अवरोध होता था। लेकिन हथेली की पाँचों उँगलियाँ बराबर नहीं होती है, सो शहर में ऐसे लोग भी थे, जो न अपने घरों को इमारत बना रहे थे, न ही घर के सामने अथवा भीतर के पेड़ काट रहे थे। 
मैं एक रोज शहर के इसी वृक्ष-वल्लरी मोहल्ले से गुजर रहा था। मार्च का महीना था। इस मोहल्ले में तरह-तरह के पेड़ थे। आम के वृक्षों पर बौर थी। अशोक के वृक्ष पतझड़ से त्रस्त थे। गुलमोहर खिले-खिले झूम रहे थे। बोगनविलिया मानों इस मोहल्ले का तोरण थी। एक घर के सामने सात-आठ वर्ष की एक बच्ची उछल-उछल कर अमरूद तोड़ने का प्रयास कर रही थी। उस घर के सामने अमरूद का पेड़ कच्चे-पके अमरूदों से लदा पड़ा था और सिर्फ एक ही बच्ची अमरूद खाने को उतावली थी! मोहल्ले के बाकी बच्चे कहाँ थे? हो सकता है मोहल्ले में बच्चे ही न हों? या फिर हो सकता है उन बच्चों के माता-पिता ने उन्हें घर से बाहर निकलने ही न दिया हो? इस तरह के तमाम ख्यालों से भरा मैं उस अमरूद के पेड़ के पास तक पहुँच गया। मुझे देख कर बच्ची ने उछलना बंद कर दिया लेकिन अमरूद की ओर देखती ही रही। वह अमरूद मेरी पहुँच में था, सो मैंने हाथ उठाकर उसे तोड़ा और बच्ची को दे दिया। बच्ची ने मुस्कुरा कर थैंक्यू कहा ही था कि उस घर से एक बुजुर्ग निकले। बाहर आते ही उन्होंने मेरे गाल पर थप्पड़ जड़ दिया। मैं हतप्रभ उन्हें देखता भर रह गया। उन बुजुर्ग महाशय ने बच्ची का हाथ पकड़ा और घर के अंदर चलते बने। जाते हुए वे बुदबुदा रहे थे, "ऐसे लोग किसी को भी सीखने नहीं देते, आखिर शहरों में अब फल देने वाले पेड़ ही कितने बचे हैं? अरे कितने बच्चे खुद ही पेड़ से तोड़कर फल खाते हैं? अब तो बाज़ार में ही बिकते हैं फल...."



खान-पान के अहम् फाल्गुन नियम

प्रतीकात्मक पेंटिंग : पुष्पेन्द्र फाल्गुन  इन्टरनेट या टेलीविजन पर आभासी स्वरुप में हो या वास्तविक रुप में आहार अथवा खान-पान को लेकर त...