शनिवार, 26 मार्च 2011

एक फूल की बात...


बगीचे में एक फूल खिला. हवा के झोंकों ने उसकी खुशबू चहुँ दिशि बिखेर दी. भौरों और तितलियों में तो जैसे उस फूल की करीबी पाने की होड़ लग गई. बगीचे में आने वाले मनुष्यों को भी फूल की ताजगी और खुशबू ने आकर्षित किया. जो भी उस फूल को देखता, देखता ही रह जाता. उस शाम बगीचे में उस फूल को देखने के लिए शहर भर की भीड़ आयी. कुछ उत्साही नौजवानों ने उस बगिया के माली की तारीफ़ की. नौजवानों को तारीफ करते देख, बुजुर्गों ने भी माली की तारीफ की. बुजुर्गों को तारीफ करते देख, बच्चों ने भी माली की तारीफ की. तारीफ की बात जब एक कलाकार ने सुनी, तो उसने भी फूल को एक नज़र देख, माली के सम्मान में कसीदे पढ़े. राजनीतिक दलों ने भी माली को अपने-अपने मंच पर सम्मानित करने की घोषणा की. एक व्यक्ति ने माली की इसलिए खिचाई की कि उसके हिसाब से फूल सही ढंग से नहीं खिल पाया था और क्योंकि माली ने समुचित तकनीक से उस फूल के पौध की देखभाल नहीं की थी, इसलिए फूल समय से पहले और कम-खूबसूरती में खिल पाया था, इस वजह से उस फूल को उतना 'अटेंशन' नहीं मिल पाया, जिसका वह फूल हक़दार था. इस तरह कुछ मनुष्यों ने फूल को भुलाकर माली की तारीफ या फिर निंदा में ही दिन बिता दिया. दिन ढला तो फूल भी मुरझा गया. लेकिन  मुरझाने के पहले फूल सैकड़ों लोगों की साँसों को महका गया था, उन लोगों की साँसों को भी, जो माली की तारीफ और निंदा में मस्त थे. यह बात और है कि तारीफ और निंदा करने वालों ने फूल की खुशबू को महसूस करने की बजाय, माली को तरजीह दी थी...

चंद्रकांत देवताले : अंतर्बाह्य कवि - प्रफुल्ल शिलेदार

हिन्दी कवि चंद्रकांत देवताले को आज 26 मार्च को नाशिक के यशवंतराव चव्हाण महाराष्ट्र मुक्त विश्वविद्यालय के कुसुमाग्रज अध्यासन की ओर से 'कुसुमाग्रज राष्ट्रीय साहित्य पुरस्कार 2011'प्रदान किया जाएगा। वरिष्ठ कवि एवं अनुवादक विष्णु खरे उन्हें यह पुरस्कार सौपेंगे। पिछले महीने ही श्री देवताले को ग्वालियर में प्रथम कविता समय सम्मान से नवाजा गया था। हमारे समय के इस 'वरिष्ठ' लेकिन महत्वपूर्ण कवि की कविताओं की समर्थता का खाका खींच रहे हैं, चर्चित युवा मराठी कवि प्रफुल्ल शिलेदार। मूल मराठी से अनुवाद किया है युवा हिन्दी कवि पुष्पेन्द्र फाल्गुन ने।

पिछले पचास साल से भी अधिक समय से कविता लिख रहे चंद्रकांत देवताले उम्र के उस मुकाम पर हैं, जिसे बुजुर्गियत कहा जाता है, और जहाँ पहुँचते ही आम लेखक कवि अपनी 'वरिष्ठता' पर धन्य हो उठते हैं और अपनी सर्जनशीलता भूलकर आर्शीवाद देने की भूमिका में जम जाते हैं। खुद अपने विघटन के चश्मदीद होते हैं और अपनी महिमा-मंडन की कोशिश में जुटे रहते हैं। लेकिन चंद्रकांत देवताले इस तरह की बातों से चिढ़ते हैं। 2010 में उनका ग्यारहवां कविता संग्रह 'पत्थर फेंक रहा हूँ' प्रकाशित हुआ। कवि के रूप में इस क्षण तक जीवित रहने का सूत्र ही उन्होंने इस संग्रह के एक कविता में बयान किया है;
'मेरी किस्मत में यही अच्छा रहा  कि आग और गुस्से ने मेरा साथ कभी नहीं छोड़ा'
वे लिखते हैं - 'ऐसे जिंदा रहने से नफरत है मुझे  जिसमें हर कोई आए और मुझे अच्छा कहे  मैं हर किसी की तारीफ करते भटकता रहूँ  मेरे दुश्मन न हों  और इसे मैं अपने हक में बड़ी बात मानूँ'
आम तौर पर इस उम्र के लेखकों की आकांक्षा के उलट बातें देवताले अपनी कविताओं में लिखते हैं। उनका अलहदापन विधानों के रूप में उनकी कविताओं में व्यक्त होता है, जिसे उनकी कविताओं से रूबरू हर शख्स जान सकता है। 
देवताले कभी कवि-काया में प्रवेश नहीं करते। उन्हें कभी कवि-काया में प्रवेश की जरूरत नहीं पड़ती, क्योंकि वे साक्षात अंतर्बाह्य कवि हैं। निरंतर कवि हैं। कविता की अखंड धूनी अपने मन में रमाए हुए हैं। जीवन का हर क्षण वे कवि की तरह ही जीते हैं। चिरंतन जागरुकता से उनकी कविताओं को व्यापक जीवन-दृष्टि मिलती है। दुनिया के सभी छोटे-बड़े प्रसंगों को कविता में रुपांतरित करने का सबक देवताले की कविताओं के जरिए हासिल है। 'नींबू मांगकर' सरीखी कविता के जरिए वह पड़ोसी से नींबू मांगने की छोटी सी घटना के जरिए बदलती सामाजिक मानसिकता को उजागर करते हैं। इस घटना की पार्श्वभूमि पर वे कहते हैं, 'अब घर में ही बाजार हो गए हैं और बैंक खुल गए हैं, लेकिन एक साधारण नींबू पड़ोसी से बाँटने की हमारी कैफियत गुम हो गई है', इस प्रसंग को पढ़ते हुए पाठक अपनी पड़ताल के लिए विवश हो जाता है।
समय के थपेड़ों से मानवीय मूल्यों के अधोपतन ही देवताले की कविताओं के महत्वपूर्ण आस्थाविषय हैं। वैश्विक बाजारीकरण की वजह से धीरे-धीरे कमतर होती जा रही मानवता, उन्हें बेचैन करती है। आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक घिसरन के इस दौर में, वे, सबसे निचले पायदान पर स्थित आम आदमी के दृढ़ता से खड़े रहने का स्वप्न देखते हैं। लेकिन इस वर्ग से दूर हो जाने का खेद उनकी 'मेरी पोशाक ही ऐसी थी' शीर्षक की कविता में स्पष्ट दिखाई देता है। देवताले के कवि होने का यह एक महत्वपूर्ण पहलू है। इस तरह की आत्म-टिप्पणियों से वे कविता से आत्म-प्रवंचना के ऊपरी झोल को सीधे छाँट देते हैं। अनेक करुणामय चित्र वे कविता के माध्यम से हमारे समक्ष कुछ इस तरह उपस्थित करते हैं कि ये चित्र हमारे मन-मस्तिष्क पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। कई कविताओं में देवताले ने निजी और व्यक्तिगत अनुभव व्यक्त किए हैं। दैनिक जीवन के अनुभव हों कि छोटी घटनाओं से जन्मती विचार तरंगें हों, देवताले व्यक्तिगत अनुभवों का सहजता से व्यापीकरण करते हैं। इस प्रक्रिया में उनकी अनूठी कल्पनाशक्ति पंक्ति दर पंक्ति उनका साथ देती है। विलक्षण संवेदनशीलता उन अनुभव को संपूर्ण क्षमता के साथ कविता में ले आती है। ठेठ बोली से नजदीकी बनाती भाषा की ताजगी कविता को स्पंदित करती है। सबसे महत्वपूर्ण यह कि जिंदगी के संघर्षों में भी कवि अपनी जनपक्षधरता को नहीं बिसरता और इसी वजह से उनकी कविताएं सीना ताने खड़ी रहती हैं। देवताले की प्रत्येक कविता, यहाँ तक कि उनके ताजा संग्रह की कविताएं भी, इस गुण-विशेष से जगमग हैं। इस तरह की सृजनात्मक ऊर्जा के कवि गिनती के ही हैं और देवताले का नाम इस श्रेणी में सर्वोच्च है।
देवताले जी की कविताओं का विश्व व्यापक है। उसमें वास्तविक जीवन की सैकड़ों वस्तुएं हैं। आग, पानी, रोशनी, आकाश, पहाड़, चंद्रमा, पत्थर, चाकू, नींबू, समुद्र, पेड़, अंधेरा..., उनके पसंदीदा रूपक हैं। इन रूपकों का वे किसी भी तरीके से उपयोग कर सकते हैं, विकसित कर सकते हैं। नई अल्पजीवी वस्तुओं को अपनी कविता में बिंब बनाने की बजाय वे पुरातन बिंबों से ही नए समकालीन अर्थ व्यक्त करते चलते हैं। हमारा मनुष्यत्व अनेक रिश्ते-नातों से समृद्ध होता है। देवताले अपने पिता होने, पुत्र होने, भाई होने, मित्र होने के संबंधों की अति सूक्ष्म पड़ताल अपने कविताओं के जरिए करते हैं। दो लड़कियों का पिता होने से, माँ पर नहीं लिख सकता कविता, बेटी के घर से लौटना, जैसी कविताओं के जरिए अति निजी संबंधों के अनुभवों को हौले-हौले कविताओं में महज रूपांतरित कर ही देवताले रुकते नहीं है, बल्कि इन अनुभवों को अविस्मरणीय ऊंचाई पर ले जाते हैं। इन कविताओं को पढ़ने के बाद हम निजी अनुभवों में इनकी तीव्रता महसूस कर सकते हैं।
देवताले की कविताओं में स्त्रियों के विविध स्वरूप और स्त्री की ओर देखने की उनकी निरपेक्ष दृष्टि पर विशेष विषय की तरह गौर किया जाना चाहिए। सिर्फ लेखक-कवियों को ही नहीं बल्कि मनुष्य के रूप में जीने वाले प्रत्येक व्यक्ति को देवताले की कविताओं की स्त्री रूप को देखना चाहिए। स्त्री-पुरुष के विविध नाते-संबंधों के दुर्लभ आयाम देवताले सहज रीति से प्रस्तुत करते हैं। विविध संदर्भों से वे स्त्री की जैव श्रेष्ठता को स्वीकारते हैं और उसकी पनाह लेते हैं। हर नाते, हर संबंध में वे स्त्री को श्रेष्ठता देते हैं। भावनात्मक दृष्टि से उससे पुख्ता तौर पर जुड़ते हैं और उसके अदभुत रसायन से थोड़ी सी ऊर्जा पाने की कोशिश करते हैं। श्रेष्ठता स्वीकारते समय वे भूले से भी उसके उदात्तीकरण का ढोल पीटना पसंद नहीं करते। आज समाज में शोषण की एक व्यूह रचना की तहत स्त्री के उदात्तीकरण का कुत्सित प्रयास कुछ शक्तियों द्वारा किया जा रहा है। इस तरह के दैवीकरण की किसी भी कारगुजारी से देवताले की स्त्री-श्रेष्ठता मीलों दूर है। बल्कि इस तरह के किसी भी कपट के विरुद्ध एक आवाज भी है। घर में अकेली औरत के लिए, नवंबर में तैरती हुई ऑंखें, बालम, ककड़ी बेचनेवाली लडकियां, ब्लेड, उसके सपने, स्त्री के साथ जैसी अनेक कविताओं के जरिए देवताले स्त्रियों की मानवीयता प्रकाशित करती अनन्य भूमिकाओं की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं। किसी भी भूमिका के पार्श्व में स्त्री विषयक स्वाभाविक आकर्षण देवताले अदभुत तरीके से प्रस्तुत करते हैं।
देवताले की कविताओं को पढ़ते हुए यह आसानी से समझा जा सकता है कि अपनी सर्जनाशील बुलंदी से वे अपने बोल-व्यवहार पर सूक्ष्म दृष्टि गड़ाए रहते हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते समय हम कई बार अपने से ही मुँह चुराने लगते हैं, अपराध बोध से भर जाते हैं। वे हमारे टुच्चेपन पर, हमारी अनैतिकता पर, हमारी असंवेदनशीलता पर, हमारी अमानवीयता पर उंगली रखते हैं। अपने व्यक्तिगत जीवन की असभ्यता और अनुदारता की ओर भी वे जब सीधे इशारा करते हैं, तब उनकी सर्वव्यापी काव्य-दृष्टि हममें संज्ञान पाती है। व्यक्तिगत संबंधों में सत्ता के तनाव से लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता के निर्मम खेलों तक देवताले की कविताओं का पाट फैला हुआ है।
हिंदी के शीर्षस्थ कवि गजानन माधव मुक्तिबोध को देवताले अपना गुरु मानते हैं। मुक्तिबोध ने कलात्मकता की तुला को जरा सा भी झुकाए बिना अपने विचारों को कविता में जगह दिलाने के लिए संघर्ष किया। जीवन के स्थूल अनुभवों और विचारों की सूक्ष्म अनुभूतियों को कला में रूपांतरित करने में देवताले को महारत हासिल है।
दूसरी भाषा के कवियों की किताबें कई बार सहजता से नहीं मिलती, तब अपनी भाषा में अनुवाद उस कवि तक हम पहुँचाने का महत्वपूर्ण काम करते हैं। देवताले की चयनित कविताओं का मराठी में अनुवाद चंद्रकांत पाटिल ने किया है, जो 'तिची स्वप्ने' (पापुलर प्रकाशन, मुंबई) नाम से पुस्तकाकार उपलब्ध है। इसी तरह चंद्रकांत पाटिल ने ही देवताले की लंबी कविता 'भूखंड तप रहा है' का भी अनुवाद किया है। (इस अनुवाद को पुस्तक रूप में साक्षात प्रकाशन, औरंगाबाद ने प्रकाशित की है।) मराठी में उनकी फिलहाल यही दो महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं। देवताले मराठी से विशेष प्रेम करते हैं। वे मराठी का 'मौसी की बोली' के रूप में उल्लेख करते हैं। मराठी साहित्य का वे लंबे समय से बारीकी से अध्ययन कर रहे हैं। इसी प्रेम के चलते उन्होंने 1980 में दिलीप चित्रे की कविताओं का एक संग्रह 'पिसाती का बुर्ज' नाम से हिंदी में अनूदित किया था। हाल ही उन्होंने साहित्य अकादमी के लिए तुकाराम के चुनिंदा अभंगों को हिंदी में अनूदित किया है।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में अपने समकालीनता को यदि समग्रता से समझना हो तो देवताले की कविताओं को पढ़ने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है। समस्त राजनैतिक समझ, सामाजिक विषमता के स्वरूप एवं कारणों की समझ, व्यक्तिगत सुख-दुखों को मानवीय सुख-दुःखों के स्तर तक ले जाने की क्षमता, तरल भाषा और अपार सहृदयता की वजह से चंद्रकांत देवताले निर्विवाद रूप से भारतीय साहित्य के एक श्रेष्ठ कवि हैं।
'पत्थर फेंक रहा हूँ' संग्रह की अंतिम कविता में लिखते हैं; -
'अब मुद्दत बाद सुना है कि दिन रात लिख रहा है
संभालकर रखी चिट्ठियों के जवाब
खोल दिया है उसने बीचो-बीच आकाश के
मँझरात एक डाकघर
निवेदन कर रहा है नक्षत्रों से
कि बांट दे वे सब मिलकर पृथ्वी पर
पौ फटने तक उसकी चिट्ठियाँ तमाम'

मैं भी आधीरात आकाश के नक्षत्रों से अनुरोध कर रहा हूँ कि वे देवताले की कविताएं रातों-रात पृथ्वी के सभी मनुष्य तक पहुँचा दें। मुझे भरोसा है कि उसके बाद जो सूर्योदय होगा, वह निश्चित तौर पर खूब मानवीय चेहरे वाला होगा। उसमें जीवन की सहजता होगी, संबंधों में घनिष्ठता होगी, विषमता की खाई पटी हुई होगी। देवताले की कविताओं में इतनी ताकत तो निश्चित ही है।

प्रफुल्ल शिलेदार
6-अ, दामोदर कालोनी
सुरेन्द्र नगर, नागपुर 440015
मो. 09970186702
shiledarprafull@gmail.com

मंगलवार, 22 मार्च 2011

कविता




वह एक अट्ठाइस-तीस के दरमियानी नौजवान था।
वह मुझे रोजाना मिलता बाग में फूलों को देखकर मुस्कुराता हुआ।
मैं जब पहुँचता वहाँ तो वह बस मुस्कुरा रहा होता
मैं जब लौटता वहाँ से तो भी वह बस मुस्कुरा रहा होता।
एक दिन बगीचे के चौकीदार ने बताया
'वह आँखों से नहीं देख सकता'
मैंने देखा, वह उस समय भी देख रहा था फूलों को।
मुझे करीब पाकर वह बोला,
'मुस्कुराने के लिए भला आँखों का भी कोई काम है'
उसकी बात सुनकर मैं जोर से हँस पड़ा था
इतनी जोर से कि मेरी हँसी की आवाज सुनकर
उसने अपनी मुस्कुराहट को और चौड़ा कर लिया था
और फिर मेरे साथ
वह भी जोर - जोर से हँसने लग पड़ा था
इतनी जोर से कि
बगीचे का बूटा-बूटा मुस्कुरा पड़ा था।

बगीचे जाने के नाम से ही अब मेरे लबों पर कौंध पड़ती मुस्कुराहट
वहाँ वह दिखाई देता तो मुस्कुराहट हँसी में बदलती
और फिर रोज-रोज हमारे साथ मुस्कुराती यह दुनिया।

एक दिन मैंने उसे बताया कि मैं लिखता हूँ कविता
तो वह उदास हो गया
वह उदास हो गया तो मैं उदास हो गया
मैं उदास हो गया तो मेरी कविता उदास हो गई
फिर हमारी उदासी से उदास हो गई यह दुनिया
और एक दिन उदास-उदास स्वर में
अत्यंत वेदना के साथ उसने पूछा मुझसे
'कविता में भला लिखने का क्या काम'
उसका सवाल सुन मैं हँस पड़ा जोर से
इतने जोर से कि मुस्कुरा उठा वह
और उसको मुस्कुराते देख मेरी हँसी की तान और बढ़ गई
और मुझे हँसते देख जोर-जोर से वह भी खिलखिलाकर हँस पड़ा
इतनी जोर से कि खिलखिला उठी दुनिया।

उस दिन शाम को मैं अपनी लिखी कविताओं को झोंक आया हूँ
फुटपाथ पर झोपड़ा बनाए उस भिखारी के चूल्हे में
चूल्हें में बनावट की ईंधन ने कमाल किया
और चूल्हे से चट-चट की आवाज के साथ जोर से जलने लगे मेरी कविताओं से रंगे पन्ने
इतने जोर से कि उस भिखारी के चारों बच्चे खिलखिलाकर हँस पड़े
और अपनी मुट्ठी में चूल्हे की तेज लौ पकड़ने का खेला खेलने लगे

उस दिन नींद के पहले बच्चों को मिल गया था खाना।

                                                                                   - पुष्पेन्द्र फाल्गुन 

शनिवार, 19 मार्च 2011

रंग-आनंद

१० वर्षीय दिया मिश्र की पेंटिंग 'कलर्स एंड कलर'

यह समय का तिलिस्म है
कि जन्मजात कौशल
कि मुस्कुराते ही मेरे खिल उठते है जहान् के सारे रंग।

इक तुम्हारे प्यार का रंग
इक तुम्हारे धिक्कार का रंग
इक तुम्हारे इसरार  का रंग
इक तुम्हारे अबरार का रंग

इक तुम्हारे हौंसलों का रंग
इक तुम्हारे मौसमों का रंग
इक तुम्हारे चोचलों का रंग
इक तुम्हारे जुल्मों का रंग

इक तुम्हारे खेलने का रंग
इक तुम्हारे धकेलने का रंग
इक तुम्हारे खोलने का रंग
इक तुम्हारे बिखेरने का रंग

इक तुम्हारे खुशी का रंग
इक तुम्हारे हँसी का रंग
इक तुम्हारे कुशी का रंग
इक तुम्हारे फँसी का रंग

इक तुम्हारे ताकत का रंग
इक तुम्हारे हिकारत का रंग
इक तुम्हारे लानत का रंग
इक तुम्हारे सियासत का रंग

इक तुम्हारे बोझ का रंग
इक तुम्हारे सोच का रंग
इक तुम्हारे सोझ का रंग
इक तुम्हारे मोच का रंग

और ये सारे रंग बमक उठते हैं जब
तुम भी मुस्कुराते हो, मेरी मुस्कुराहटों में!

- पुष्पेन्द्र फाल्गुन
 

रविवार, 13 मार्च 2011

मेरा सपना तो देर तक चला पापा...



आज रविवार, स्कूल से छुट्टी का दिन, छोटी बिटिया सुबह देर तक सोती रही, उठी तो मैंने कहा, 'कितना सोती हो तुम सिया, तुम्हारी दोनों बहनें कब से उठ गयीं...' मेरी बात काटते हुए सिया ने कहा, 'उनका जल्दी ख़त्म हो गया होगा, लेकिन मेरा सपना तो देर तक चला पापा...'

शुक्रवार, 11 मार्च 2011

परछाई



हवा के रुख
समय के साथ
प्रगति और प्रणति के खिलाफ
उगती
पनपती
मचलती
और इठलाती है परछाई

इतिहास में 
किसी भी परछाई का जिक्र नहीं मिलता।

(शीघ्र प्रकाश्य कविता संग्रह 'चेतुल' से)

गुरुवार, 10 मार्च 2011

रोशनी



आग में नहीं
भूख में होती है रोशनी

आशाएँ
कभी राख नहीं होती

बालसुलभ रहती है
हिम्मत, ताउम्र

जरूरत
अविष्कार की जननी नहीं, पिता है

लौ लगे जीवन ही
अँधेरे का रोशनदान बन पाएंगे।

(शीघ्र प्रकाश्य कविता संग्रह 'चेतुल' से)

बुधवार, 9 मार्च 2011

अनुभव



यदि
कोई अनुभव
आपके भीतर
जिज्ञासा पैदा नहीं करता
तो सावधान
क्योंकि जिसे आप
अनुभव समझ रहे हैं
वह दरअसल में एक सीख मात्र है

एक सीख, एक सबक बस

और कई बार जीवन में हम
सीख और अनुभव का फर्क नहीं समझते
और सीख को, सबक को ही अनुभव मान बैठते हैं
और उसके आधार पर अपने फलसफे भी गढ़ते जाते हैं
सिद्धांत भी रचते जाते हैं
सीख में ही इतने तल्लीन और गुम हो जाते हैं
की उसे ही अनुभव सिद्ध करने में अपना सारा कौशल, सारी क्षमता लगा देते हैं
अपने इर्द-गिर्द देखिए आपको ऐसे तमाम लोग मिल जाएँगे
और दर्पण में देखेंगे तो.....

इसीलिए अनुभव और सीख का फर्क समझिए
अनुभव वही है, 
जो आपके भीतर 
उसी विषय के बारे में 
और जिज्ञासा पैदा करे 
कि जिसका आपने अनुभव किया है.

मंगलवार, 8 मार्च 2011

सिया की 'गुड़िया'



मेरी सबसे छोटी बिटिया सिया दहलीज़ पर खड़ी जाने क्या सोच रही है, क्या वह अपने भवितव्य को लेकर चिंतित है! उसके पैरों पर सूर्य किरणें कुछ इस तरह से बिखरी हैं कि मानों उसे रश्मियों के रथ पर लेकर परी-लोक जाना चाहती हों. बिटिया भी तो 'बैग' लेकर तैयार है और उसके 'बैग' से यह कौन झाँक रहा है!, ये तो सिया की 'गुड़िया' है...

इन दिनों उदास हैं अम्मा.....



पिछले पच्चीस साल से अम्मा चाय पिला कर औरों के जीवन में मिठास घोल रही हैं. उनका जीवन हमेशा ही कटु अनुभवों से भरा रहा. पति लम्बे समय तक बीमार रहे और एक दिन बीमारी में ही गुज़र गए. जवान लड़के ने चालीस की उम्र में आत्महत्या कर ली. बचे एक लड़के को जुएँ की लत लगी हुई है. लेकिन इस सबके बावजूद अम्मा की चाय का स्वाद जस का तस बना रहा. मगर इनदिनों उदास हैं अम्मा, चाय का गिलास थमाने से पहले हर किसी से पूछती हैं, 'क्या सबकी आँखों का पानी मर गया है भैया...'

अनुग्रह



मेरी ही तरह
हर पुरुष के वजूद की वजह
एक स्त्री है.

मेरी ही तरह
हर पुरुष
जन्मा है अपनी माँ की कोख से

और जन्मते ही उसने पिया है माँ का दूध

एक स्त्री के इस अनुग्रह की याद
हम पर बनाए रखती है 
ममता की छांह ताउम्र
फिर चाहे माँ रहे या न रहे

(शीघ्र प्रकाश्य कविता संग्रह 'चेतुल' से)

सोमवार, 7 मार्च 2011

संभावना



भावनाओं से नहीं संभावनाओं से जीवन संचालित होना चाहिए. 

जीवन में संभावनाएं होंगी तभी बेहतरी के लिए, बेहतरी की ओर हमारे कदम उठेंगे-बढ़ेंगे. 

संभावना क्षमताओं को कुंद नहीं होने देती,  उन्हें क्षीजने नहीं देती. 

संभावनाओं की कोई जात नहीं होती, कोई धर्म नहीं होता, कोई वर्ण नहीं होता, कोई गोत्र नहीं होता. 

संभावनाएं बस संभावनाएं होती हैं. 

हर संभावना अपनी कोख में एक और संभावना लिए....सदैव संभावित रहती है.
.
संभावनाओं से प्रेम करने पर ही अपनी विराटता का एहसास होता है. 

संभावनाओं के प्रेम में पड़ने पर ही हम अपने भीतर उदात्तता और उदारता को प्रवाहित कर पाते हैं. 

संभावना हमें इमानदारी और बेईमानी की कारोबारीय परिभाषा से मुक्त कराती है. 

संभावना हमारे भीतर से हर किस्म की फांक मिटाती है.

संभावना अपने-पराये के भेद से निजात दिलाती है.

संभावना हमें जीवन बेहतर बनाने के लिए प्रेरित करती है, अपना ही नहीं, अपनों का, समूची कायनात का, समूची प्रजातिओं का, जड़ का, चेतन का.

संभावना हमें चैतन्य बनाती है, 
संभावना हमें सर्जक बनाती है,
संभावना हमें रचनाशील बनाती है, 
संभावना हमें गतिशील बनाती है, 
संभावना हमें प्रगतिशील बनाती है.

संभावना विधेयक है, विधाता है, विधान है

संभावना का दामन पकड़ना आसान है.....

आइये संभावनाशील बनें.....

रविवार, 6 मार्च 2011

डरपोक हम


कितना डरते हैं हम, हर बात पर, हर समय, बस डर और डर 
ऐसा करने में डर, वैसा करने डर
यह करने में डर, वह करने में डर
ऐसा बोलने में डर, वैसा सुनने में डर
यह बताने में डर, वह पूछने में डर
यह दिखाने में डर, वह देखने में डर
उफ्फ, कितना डरते हैं हम
और हर क्षण बस मुर्दा होकर जीते हैं
मुर्दा जीवन, मुर्दा इंसान, मुर्दा इंसानियत

गब्बर अंकल दशकों पहले कह गए हैं
'जो डर गया, समझो मर गया'

हालांकि गब्बर अंकल भी मर गए हैं
लेकिन डरते हुए नहीं मरे
जो डरता है, वह हर क्षण मरता है
हर कदम पर मरता है, हर शै मरता है

मौत से पहले मरना बंद करो
अब डरना बंद करो

सोचो कि हमारी तरह ही यदि
ये पेड़ डरते
तो बताओ क्या कभी ये बढ़ते
फलते-फूलते
छाया देते-ऑक्सीजन देते

सोचो कि हमारी तरह ही यदि
ये नदी डरती
तो बताओ क्या ये कभी बढ़ती
सागर से मिलती
और हमारा जीवन क्या इतना पानीदार हो पाता

डर हमारी प्रगति रोकता है
डर हमारी नियति रोकता है

डर हमें यथास्थितिवादी बनाता है
डर हमें फरियादी बनाता है

डरना बुरा नहीं
डर से चिपके रहना बुरा है
डर से उबरने की कोशिश ही नहीं करना बुरा है

जो डर से उबरने की रंचमात्र भी कोशिश करते हैं
एक पल में ही वे डर को डरा रहे होते हैं

आइये डर को डराएँ...




शनिवार, 5 मार्च 2011

ख्वाब



तुम्हें देने के लिए
मेरे पास है
एक ख्वाब

एक ख्वाब
जिसका
मेरी नज़रें कर रही हैं बोसा

एक ख्वाब
जिसका
तुम्हारी नज़रें कर रही हैं बोसा

मुक्ति की कामना



दाल दरते हुए
सोचती हैं
संजय गनोरकर के
शिल्प की सारी महिलायें
कि
पुरुष लिंग ही
असल में उनके
समस्त विपदाओं की जड़ है
और यह भी सोचती हैं
कैसे इस जड़ से पाएं 
मुक्ति

दाल दरती हुई महिलाओं को देखकर
मैं सोचता हूँ
कि क्या वे सचमुच
यही सोच रही होंगी.....

(संजय गनोरकर अमरावती में रहते हैं और देश के प्रतिष्ठित शिल्पकार हैं)

शुक्रवार, 4 मार्च 2011

कि कहीं बड़ी होती है भीतर की दुनिया

बाहर की दुनिया से
कहीं-कहीं बड़ी होती है
भीतर की दुनिया

भीतर की दुनिया में बड़े होकर ही
हुआ जा सकता है इंसान
पायी जा सकती है इंसानियत
भीतर की दुनिया में बड़े होकर ही
बनाई जा सकती है बाहर की दुनिया
और बेहतर और सुन्दर और जीने लायक

भीतर की दुनिया में बड़े होकर ही
खिला जा सकता है जैसे फूल
उड़ा जा सकता है जैसे तितली

भीतर की दुनिया में बड़े होने के लिए
अपरिहार्य होती है बाहर की दुनिया
और उसकी ज़मीन-उसका आसमान
उसकी रोशनी-उसका अँधेरा
उसकी हवा-उसका पानी
उसकी संस्कृति-उसका इतिहास

जो भीतर से बड़े नहीं होते
वे बाहर की दुनिया में
रह जाते हैं चार-अंगुश्त छोटे
हर समय, हर जरूरत, हर मौके 

(शीघ्र प्रकाश्य कविता संग्रह 'चेतुल' से)

खड़े होना है अपने ही खिलाफ

जब तक नहीं खड़े होंगे हम अपने भीतर के सामंत के खिलाफ
तब तक हम बने ही रहेंगे, 
मालिक, नौकर, बागी, प्रशंसक या चाहे जो,
लेकिन पुख्ता हुक्म के गुलाम
हुक्म देने के गुलाम, 
हुक्म मानने के गुलाम
ज्यादा उदार हुए तो हुक्म देते हुए 
बिल्कुल फुसफुसाते हुए लोकतंत्र का हवाला भी दे देंगे
ज्यादा समझदार हुए तो हुक्म मानते हुए 
हुक्म न मानने वालों की फेरहिस्त का बोसा करेंगे चुप-छिप कर
हुक्म देने वाले को हुक्म मानने वाले से श्रेष्ठ समझेंगे
या फिर हुक्म मानने वाले को हुक्म देने वाले से बेहतर कहेंगे
इस तरह धीरे-धीरे एक दिन 
हम भी हो जाएंगे पूर्णकालिक मालिक, नौकर, बागी, प्रशंसक या चाहे जो
लेकिन पुख्ता हुक्म के गुलाम
इसलिए जिन्हें यह मालूम हैं कि उनके भीतर जरा भी है खिलाफत की आग
खड़े होना होगा उन्हें सबसे पहले अपने भीतर के सामंतवाद और अपने भीतर के सामंत के खिलाफ

 

ये खन्ना जी हैं, नहीं रघुबीर सिंह हैं

नागपुर, संतरा नगरी नागपुर, आदिवासी गोंड राजाओं द्वारा तीन सौ साल पहले बसाया गया एक ऐसा शहर जिसकी तासीर में वह सबकुछ है, जो एक शहर को शहर बनाए रखने के लिए होनी चाहिए. रघुबीर सिंह चालीस की उम्र में नागपुर आये. पिता इन्हें ट्रांसपोर्ट व्यवसायी बनाना चाहते थे, लेकिन वे इस दांवपेंच भरे व्यवसाय से दूर ही रहना चाहते थे. रघुबीर सिंह का परिवार तकसीम के बाद रावलपिंडी से पहले दिल्ली और फिर जबलपुर आया. सभी भाई अलग-अलग पेशों में 'फिट' हो गए. तकसीम के समय तक रघुबीर सिंह, बर्मा में इंजीनिअरिंग मिलिटरी सर्विस में बतौर इंजीनिअर कार्यरत थे. वहाँ ड्यूटी के दौरान हुए हादसे के बाद अँगरेज़ आला अधिकारियों और जापानी सहयोगियों द्वारा दिखाई गई उपेक्षा और बेपरवाही से बगावत कर उन्होंने नौकरी त्याग दी. जबलपुर आये.  पिता ने ट्रांसपोर्ट व्यवसाय से जोड़ लिया. उनदिनों नागपुर मध्यप्रदेश की राजधानी था. रघुबीर सिंह की लारियाँ नागपुर से सामान लेकर जबलपुर आया-जाया करतीं. ब्रेक- डाउन अथवा वसूली के लिए उन्हें भी नागपुर आना-जाना पड़ता. उनदिनों अपनी बुलेट मोटर साइकल से रघुबीर सिंह खन्ना महज साढ़े चार घंटे में लगभग पौने तीन सौ किलोमीटर की दूरी तय कर लेते थे. एक दिन एक व्यापारी से माल लदाई को लेकर ठन गई, सो इस व्यवसाय को ही उन्होंने राम-राम कर लिया.
रघुबीर सिंह किशोरावस्था से ही वामपंथी रूझान रखते रहे. जबलपुर में वामपंथी माहौल बनाने में इनका भी अविस्मरणीय योगदान है. आज रघुबीर सिंह ८८ बरस के हैं. उनकी पीढ़ी के वामपंथी, फिर चाहे वे जहां भी हों, रघुबीर सिंह को भूले नहीं होंगे. जब वामदलों में तकसीम हुई तो रघुबीर सिंह ने दोनों ही पार्टी से किनारा कर लिया. एक इंसान जिसने देश और दिल के तकसीम को देखा-भुगता था, मानो अब किसी और बंटवारे के लिए तैयार न था.
इस दुःख से उबरने के लिए ही उन्होंने नागपुर आकर भाई के प्रकाशन व्यवसाय को संबल देने का निश्चय किया, लेकिन यहाँ पहुंचकर जो चुनौतियां उन्होंने देखी-झेली, उसने उन्हें अपना प्रकाशन संस्थान शुरू करने के लिए प्रेरित किया.
खन्ना जी के नाम से प्रकाशन व्यवसाय में ख्यात रघुबीर सिंह को अपने ख्यात नाम की जगह अपना मूल नाम ही पसंद है. मैं उन्हें गत बीस वर्षों से जानता हूँ, लेकिन आज तक मैंने उन्हें कभी किसी की निंदा करते अथवा किसी के लिए अपशब्द कहते नहीं सुना. आपसे यदि वह कोई बात कहेंगे तो शुरू कुछ इस तरह करेंगे, 'मैं आपसे अर्ज़ करता हूँ कि.....' आपकी किसी बात से वे यदि असहमत हुए और गुस्सा भी गए तो आपको सेठ साहब कह देंगे.
इनदिनों वे अपनी पुस्तक दूकान को नए सिरे से सवारने में लगे हुए हैं. कहते हैं किताबों और पाठकों के बीच में जितना ज्यादा स्पेस होगा उनमें उतना ही संवाद की संभावना बनेगी. उनकी दूकान में बहुत-बहुत सी किताबें हैं, लेकिन उन किताबों तक पहुँचने के लिए पाठकों को ज़रा मशक्कत करनी पड़ जाती थी, सो उन्होंने नया इंतजाम कर दिया.
रघुबीर सिंह ने ही गजानन माधव मुक्तिबोध की पहली किताब 'भारत : इतिहास एवं संस्कृति' को १९६२ में प्रकाशित किया था. उस समय डाक्टर शंकर दयाल शर्मा मध्यप्रदेश के शिक्षा मंत्री थे और उन्होंने इस किताब की अहमियत समझ कर इसे 'टेक्स्ट बुक' की तरह पाठ्यक्रम में शामिल किया था. जब किताब छपी तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नागपुर से छपने वाले दैनिक मुखपत्र 'युगधर्म' ने इस किताब की प्रसंशा में कसीदे पढ़े, लेकिन जैसे ही यह किताब पाठ्यक्रम में शामिल हुई, 'युगधर्म' ने हाय-तौबा मचा दी. आर.एस.एस के इशारे पर जनसंघियों ने इस किताब की होली जलाई और सरकार से तुरंत इसे पाठ्यक्रम से हटाने की मांग करते हुए हिंसक आन्दोलन करने लगे. तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री मंडलोई जी नी शंकर दयाल शर्मा जी से इसे पाठ्यक्रम से हटाने को कहा, तो शर्मा जी ने यह कहते हुए मना कर दिया कि, 'हमने ही इसे लगाया है, हम नहीं हटाएंगे, बतौर मुख्यमंत्री, गृहमंत्री, विधि मंत्री आप चाहे जो निर्णय करें.' भारत: इतिहास एवं संस्कृति को पाठ्यक्रम से हटा दिया गया. रघुबीर जी सरकार के इस फैसले के खिलाफ उच्च न्यायालय गए, न्यायालय में मुक्तिबोध जी ने भी जज महोदय को ऐसी पंद्रह पुस्तकों की सूची दी, जिन पर बैन उसी वजह से लगाना चाहिए जिस वजह से उनकी किताब पर लगा, उन पंद्रह किताबों में पंडित जवाहर लाल नेहरु और श्यामाप्रसाद मुखर्जी कि किताबें भी थी. उच्च न्यायालय ने भारत: इतिहास एवं संस्कृति को 'टेक्स्ट' की बजाय 'रेफरेंस' बुक मानने की सालाहियत दी. यह मामला १९६४ में ख़त्म हुआ. इस किताब का सम्पादन हरिशंकर परसाई जी ने किया था.
रघुबीर सिंह को और एक किताब को लेकर अदालत के चक्कर लगाने पड़े, और उस मामले में भी अदालत ने यही कहा, इस किताब को पाठ्य-पुस्तक की बजाय सन्दर्भ पुस्तक माना जाए, लेकिन पुणे विश्वविद्यालय की उप-कुलपति ने यह कहते हुए अदालत के आदेश की अवेहलना की कि, 'इन जजों को क्या पता कि विद्यार्थियों के लिए कौन सी किताब अच्छी है और कौन सी नहीं.' ये उप-कुलपति महोदय थे प्रोफेसर कुलकर्णी, उन्होंने विवादित किताब को पाठ्य-पुस्तकों की सूची से हटाने से मना कर दिया. बाद में कई अन्य विश्विद्यालयों ने भी उक्त विवादित किताब को बतौर पाठ्य-पुस्तक अपने-अपने पाठ्यक्रम में शामिल किया, और आज भी उक्त किताब महाराष्ट्र के कई विश्विद्यालयों में बतौर पाठ्य-पुस्तक शामिल है. उक्त किताब है' मध्य युगीन भारताचा इतिहास' और इसके लेखक हैं एम्. एम्. देशपांडे. किताब पर इसलिए विवाद था कि इस किताब के जरिये लेखक दुनिया के सामने इस मिथ पर से पर्दा उठा रहे थे कि संत रामदास छत्रपति शिवाजी के गुरु नहीं थे. यह किताब रघुबीर सिंह खन्ना ने १९७१ में छापी थी और १९७२ में अदालत ने इसे रेफरेंस बुक करार दिया था. आज भी स्नातकीय पाठ्यक्रम में यह पुस्तक विद्यार्थियों को सही जानकारी दे रही है और भारत: इतिहास और संस्कृति किताब की दूकानों में पड़ी धूल खा रही है. सिर्फ हिंदी बेल्ट की भीरुता की वजह से.
रघुबीर जी से मिलेंगे तो वे भी यही अफ़सोस आपसे जाहिर करेंगे. 

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