शनिवार, 30 अप्रैल 2011

ओह!

ओह!

उफ्फ़! आज कितनी गर्मी है. कल से ज्यादा होगा आज का तापमान, पक्का... मूर्खता देखिये की आज हेलमेट लेकर भी नहीं निकला. बस अब जल्दी से घर पहुँच जाऊं. यह अच्छा है की आज सारे सिग्नल ग्रीन ही मिल रहे हैं, वर्ना दोपहर के साढ़े बारह बजे इस कड़ी धूप में दो पल को भी रुकना पड़ जाए तो..!! अपनी ही नज़र लगी पुलिस लाइन का सिग्नल रेड हो गया. खैर चलो घर पास ही है. इस ऑटो की बगल में खड़ा हो जाता हूँ. ८९..८८..८७... ओह कब आएगा यह सिग्नल १ पर.. ये ऑटो में बैठे बाबाजी को क्या होगा.. क्या थूक रहा है ये... अरे देखना... ये तो उलटी कर रहा है... और उलटी को बायीं हथेली में उगल कर धीरे से ऑटो के नीचे फेंक रहा है... और दाहिने हाथ से मुझे क्या इशारा कर रहा.. अच्छा गाडी आगे बढाने के लिए कह रह है... ताकि मेरी गाड़ी अथवा मेरे ऊपर उलटी... अरे जल्दी बढ़ाओ गाड़ी..मेरे पीछे वाला चिल्लाया, लेकिन मुझे उस पर गुस्सा आ गया, मैंने गाड़ी वहीं खड़ी की और उतारकर इधर-उधर पानी का इंतजाम देखने लगा, ताकि बाबाजी कम से कम कुल्ला कर के मुंह तो धो ही ले... मुझे पुलिस लाइन के सामने चाय की टापरी दिखी, मैं गाड़ी से चाबी निकल टपरी की तरफ दौड़ा.. और जाते-जाते ऑटो वाले को बगल में लेकर रुकने बोल गया... टपरी से लौटा तो सिग्नल पर दूसरे लोग बत्ती के हरी होने का इंतज़ार कर रहे थे.. पानी का पाउच मैंने बगल के सिग्नल टावर के पास फेंका और अपनी गाड़ी में चाबी लगाकर सिग्नल के ग्रीन होने का इंतज़ार करने लगा... इस गर्मी में ग्रीन कितना सुकून देने वाला रंग है...

शनिवार, 23 अप्रैल 2011

अनहद

(सुभाष तुलसीता का एक रेखाचित्र) 

कपोलों के सहज बिंदु पर
छपे प्रार्थना पत्रों में
कभी नहीं ढलता है सूर्य
अँधेरे में खो जाने के लिए

श्वेत स्मित मुस्कान
अचानक ही नहीं दिया करती दस्तक
न ही पक्षी
गाने के लिए
बांग की प्रतीक्षा करते हैं

मेढक टर्राते हैं साल भर
चाहे पानी बरसे
या न बरसे...

(वर्ष २००७ में प्रकाशित कविता संग्रह 'सो जाओ रात' से) 

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

परिवर्तित अस्तित्व

(मशहूर चित्रकार सुभाष तुलसीता का एक रेखांकन) 

नहीं लिखा होता
तलवार की धार पर
की किसकी गर्दन
बनेगी उसका भोजन

सिक्कों पर भी नहीं होता
किसी विशेष उपभोक्ता का नाम

तलवार और सिक्कों का वजूद
निर्भर करता है उन हाथों पर
जो करते हैं उनका उपयोग
और उपयोग के प्रयोग

टिकाऊ
 न तलवार की धार है
 न सिक्कों की खनक

दो चार गर्दन के साथ कट जाती है धार
दो पांच जेब में ही गुम जाती है खनक

धार और खनक का नहीं होना
प्रभावित करता है
इतिहास को

इतिहासज्ञ
ढूंढ़-ढूंढ़ कर लाते हैं
उन गर्दनों को और उन करतलों को
जिन्होंने निगल ली है धार और खनक

जाने किस लाचारीवश
इतिहासकार
उचित नहीं समझते
उन हाथों का उल्लेख
जो उपयोजक रहे हैं
धार और खनक के
जो हमेशा करते रहे हैं पलायन
परिवर्तित अस्तित्व की आड़ में

इतिहास गवाह है
उपयोग ने कभी नहीं माना
क्यों और कैसे का प्रयोग

(वर्ष २००७ में प्रकाशित कविता संग्रह 'सो जाओ रात' से) 

गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

हुई सुबह

सिया मिश्र की पेंटिंग 'स्पेसशिप' 


एक लड़की हंसती है
बस की खिड़की से बाहर देखती हुई
तो
छँटने लगती है कालिमा शहर की

दूर कहीं से घनघनाता भोंपू
उछाल देता है सूर्य को आकाश में 

(वर्ष २००७ में प्रकाशित कविता संग्रह 'सो जाओ रात' से)

मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

बंगाली बाबा

कपाल के मूल में धंसी आँखों से
झांकता 
उनका जीवन दर्शन
इस बार भी
उनके पोपले मुंह में
होकर रह गया गोल-गोल, फुस्स-फुस्स

आकाश की धूप को
अपनी छितरी छतरी पर टिकाये
और होंठ के कोर से फिसलती
लार की धार को
गंदले अंगरखे के हवाले करते उन्होंने
नाक से स्वर साध मुझसे पूछा
'बोलो हमी है बंगाली बाबा'

उन्हें
साइकिल की कैरिअर पर बिठा मैंने
पैडलों के सहारे
धकेली थी
उनके घर की तरफ
एक नदी
अंग्रेजों के जमाने का एक पुल
और राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक सात

रास्ते भर
बीड़ी के 
सुन्न धुएं में मिला
वह
सुनते रहे मुझे
टुकड़ों-टुकड़ों में 
बाउल
रेल की नौकरी छोड़ने की कहानी
और बाबूजी से दोस्ती के किस्से-कोताह

२.
दो शाम
नाश्ते की प्लेट की
जबरन अनदेखी के बाद भी जब
पिताजी को नहीं मिली गंगा
तो उन्होंने मुझे 
बंगाली बाबा को
बुला आने का निर्देश दिया था

दरवाजे पर
बाबा को जूते उतारते देख
पिताजी उछल पड़े थे गंगा से मिलने की कल्पनाकर 
'कब से गायब है गैया मतलब गंगा..'
बाबा के सवाल का जवाब
पिताजी अपने उच्छ्वास से देते हैं

फिर अम्मा
बाबा के आदेश पर
घर भर में दिखाई देने लगीं
आधी पालथी और घुटने पर टिकाये अपने लरजते शरीर को
बाबा फूंकते हैं पीढ़े पर

अक्षत, कनेल के फूल, काजल की डिब्बी
सेंदुर, हरदी, चन्दन और रोली की चौखानी डिब्बी
दो कपूरी और एक बँगला पान का पत्ता
काला तिल और छोटे पात्र में गंगाजल
एक कुश शाखा
और शुद्ध गाय के घी में बूड़ी बाती का दीप
सजता जाता है पीढ़े पर
बाबा की तर्जनी से तय स्थिति में

३.
कनपटी पर
चिपके बालों से टपकता ठंडा पानी
हाफ पैंट के भीतर सुरसुरी पैदा करता है
और मैं
बाएं हथेली में काजल से बनाए गए
गोल परदे पर
हर बार
गंगा को देखने से वंचित रह जाता हूँ

बाबा ताकीद करते हैं पिता से
लड़का चंचल है संभालो इसे
इसके पहले की देर हो
पिताजी का एक झन्नाटेदार तमाचा
पता नहीं कैसे
सुखा देता है मेरे कनपटी पर का पानी

अगली सुबह
पगुराती गंगा के सामने खड़ा कर मुझे
अम्मा
मेरे शरीर पर फिराती हैं बंद मुट्ठी
आख़िरी फेरे के बाद
वह खोलती हैं अपना हाथ बाबा के सामने
बाबा
अम्मा की मुट्ठी से उठाते हैं सिर्फ पांच का नोट
और चिल्लर तमाम

४.
बाबा को घर पहुंचाते वक़्त
मैं जान जाता हूँ कि
उनके घर में हैं दो स्त्रियाँ
उमकी बहू और बेटी
उस रात
सारे सपनों में चुभती रही
बाबा के बेटी की
अदेखी आँखें

बेटी पर लोटते यौवन से चिंतित बाबा
घर के सामने स्थित सिद्ध चौतरे पर
जमाते हैं नौ दिनी मनोकामना सिद्धि डेरा
चौबीस साल के थे तब से
बाबा की सिद्ध हैं माँ काली
चौरासी साल की पकी उम्र में बाबा ने
भले न देखी हो अब तक माँ काली
लेकिन उनका दृढ़ विश्वास है
कि काली उनकी जोगनी से बीस नहीं
अलग नहीं

सिद्ध काली के दम पर
बाबा ढूंढ लाते हैं
लोगों की गुमी गाय, बकरी, मुर्गी
ठीक कर देते हैं
पहलवानों का शीघ्रपतन और स्वप्नदोष
कई कम्युनिस्टों को बाबा
पहना आये हैं रंग-बिरंगी अंगूठी
इसी सिद्ध काली के दम

बाबा का लड़का रोज़ कहीं जाता है
लेकिन लौटते वक़्त कमाई नहीं लाता है
बहू का दिन मोहल्ले के दिलफेंक मजनुयों के बीच कट जाता है
बाबा पका लेते हैं चूल्हे पर दोनों जून खाना
कहते हैं जोगनी से क्या मदद लेना
इस बेचारी को तो करना ही है जिंदगी भर

बाबा के काँधे पर लटकती मूंज
तब उनके अंगूठों में फंस जाती है
जब जोगनी उन्हें देती है उलाहना
भात जलाने
और अपने लिए वर नहीं खोज पाने के लिए

बाबा जोगनी को दस बरस पहले
कुछ नशेड़ियों से मुक्त करा लाये थे
सिद्ध काली के दम पर नहीं
सिद्ध काली के डर से

५.
मनोकामना सिद्धि के नौवें दिन बाबा 
लोगों के गुमे जानवरों को बेटे और बहू के लिए छोड़
सिद्ध काली के चौतरे पर ही सिधार गए
जोगनी ने तेज़ बहते आंसुओं को जल्दी-जल्दी पोंछते हुए
बाबा की देह से छपटकर इतना ही कहा था
'मेरी शादी करके यमराज का भैसा ढूँढने नहीं जा सकते थे बाबा...'

६.
उस दिन से
नहीं सुनी किसी ने
जोगनी की आवाज़

उस अँधेरे-छोटे कमरे में जब
कोई नोचता है उसकी देह
तो जोगनी
सामने की दीवार पर टंगी
बाबा की तस्वीर में खो जाती है
बरसों पुरानी फ्रेम से घिरे बाबा
जाने कब से बीड़ी फूंक रहे हैं उस तस्वीर में



(वर्ष २००७ में प्रकाशित मेरे कविता संग्रह 'सो जाओ रात से')

गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

समता


समता की 
चाह से ही
टूटेंगे 
जाति 
और 
धर्म के 
चक्रव्यूह

समता की दीक्षा
यहाँ जारी है
अहर्निश

बुधवार, 13 अप्रैल 2011

सो जाओ रात


चारों तरफ
बरस रही है रात
नभ-मंडल का पर्दा खुल गया है

चाँद पर लिख इबारत
रास्ते
सोने चले गए हैं

चांदनी दबे पैर
आ गई है दूब पर 

शबनम
बनाने लगी है घर
पूरे लय में

सितारे खेलते हैं
आँख मिचौनी
शहर की रोशनी से

सूर्य को सपने में देख
रास्ते चौंकते हैं
नींद में

शबनम की तन्मयता
सितारों का संघर्ष देख
अँधेरे को भी नींद आने लगी

नीरव मौन को
सुलाना जरूरी है
की इससे भंग हो रही है
रास्ते की नींद
सितारों का संघर्ष
शबनम की तन्मयता

आओ
मौन को सुलाएं
नींद तुम लोरी गाओ
मैं टोकरी में सपने भर
खड़ा हो जाता हूँ
मौन के सिराहने

रात का बरसना ज़ारी है
तो रहा करे
कसम से

(२००७ में प्रकाशित मेरे कविता संग्रह 'सो जाओ रात' की शीर्षक कविता. इस कविता को 'वागर्थ' के नव-लेखन प्रतियोगिता -२००७ में सांत्वना पुरस्कार भी दिया गया था.)

शनिवार, 9 अप्रैल 2011

वलनीः छब्बीस बरस की गवाही


-लेखक योगेश अनेजा 


यह कहानी है नागपुर तालुका के गांव वलनी के लोगों की। वलनी में उन्नीस एकड़ का एक तालाब है। वलनीवासी 1983 से आज तक वे अपने एक तालाब को बचाने के लिए अहिंसक आंदोलन चला रहे हैं। छब्बीस वर्ष गवाह हैं इसके। न कोई कोर्ट कचहरी, न तोड़ फोड़, न कोई नारेबाजी। तालाब की गाद-साद सब खुद ही साफ करना और तालाब को गांव-समाज को सौंपने की मांग। हर सरकारी दरवाजे पर अपनी मांगों के साथ कर्तव्य भी बखूबी निभा रहा है यह छोटा-सा गांव। योगेश अनेजा, जो अब इस गांव के सुख-दुख से जुड़ गये हैं, वे 26 वर्ष लम्बी  दास्तान को बयान कर रहे हैं.
हम सब कलेक्टर के पास अर्जी लेकर गए थे। उन्होंने कहा कि मैं तो यहां नया ही आया हूं। मैं देखता हूं कि मामला क्या है। अर्जी के हाशिए में कोई टिप्पणी लिखकर उसे एस.डी.ओ. की तरफ भेजते हुए कहा कि अभी तो मंत्रीजी आ रहे हैं, मैं उन्हें लेने हवाई अड्डे जा रहा हूं। आप बाद में मिलिए।
अगली बार फिर उन्नीस किलोमीटर दूर से अर्जी लेकर चार-पांच साथियों को किसी तरह मनाकर जुटाकर कलेक्टर साहब से मिलने पहुंचा तो पता चलता है कि वे तो अभी एक बैठक में हैं। आज नहीं मिलेंगे। किसी कोशिश में मिल भी जाएं तो फिर वही सुनने मिलता है: नया आया हूं। आप कागज छोड़ दीजिए, देखता हूं क्या हो सकता है। फिर एक साल दो साल में जब तक मामला इनको समझ में आना शुरू होगा, तब तक इनकी भी बदली हो जाएगी।
तब फिर हम जाते हैं एस.डी.ओ. के पास। एस.डी.ओ. फोन उठाते हैं, तहसीलदार को बताते हैं कि तुम कुछ करो। ये लोग बार-बार मेरे पास आते हैं। एस.डी.ओ. लिखकर कुछ नहीं देते। फोन पर बात करते हैं ताकि उनकी कलम न फंस जाए कहीं।
अब फिर हम जाते हैं तहसीलदार के पास। तो तहसीलदार जो ऊपर के अधिकारियों के दवाब के कारण गांव जाकर मौका चौकसी कर चुके हैं, कहते है कि मैंने मालगुजार को जनवरी 2009 में एक हजार रुपए का दंड किया है और सात दिन के भीतर अतिक्रमण हटाने का नोटिस भी दे दिया है। इससे ज्यादा भला मैं क्या कर सकता हूं। अच्छा हो, अब तो आप कोर्ट जाओ।
तहसीलदार ने मालगुजार को सात दिन में अतिक्रमण हटाने का नोटिस दिया। इससे एक बात तो साफ है कि गांव वाले सच बोल रहे हैं। तालाब सरकारी है। पर ये सात दिन कब पूरे होंगे भगवान जाने। 
कलेक्टर कहते हैं कि मैं कुछ नहीं कर सकता। एस.डी.ओ. कहते हैं कि मैं कुछ नहीं कर सकता, तहसीलदार कहते हैं मैं कुछ नहीं कर सकता। यदि ये लोग कुछ नहीं कर सकते तो तनखा क्या ये घापा करने की लेते हैं। इन पच्चीस, छब्बीस लाइनों में जो वर्णन किया गया है, वह दो चार दिन का किस्सा नहीं है। चौंक न जाएं आप! यह छब्बीस बरस का किस्सा है।
आज जो गांवों की दयनीय स्थिति हम देखते हैं, उनमें बहुत बड़ा हाथ उन लोगों का है, जिनकी नीतियों ने गांव वालों की काम करने की शक्ति ही छीन ली है। क्या पढ़ाई-लिखाई इसलिए जरूरी कही जा रही है कि जो पढ़े-लिखे नहीं हैं, कमजोर हैं, अपनी आवाज नहीं उठा सकते, उनको दबा दिया जाए। आखिर यह पूरा मामला क्या है? 
लीजिए सुनें पूरा किस्सा। नागपुर तालुका के गांव वलनी में उन्नीस एकड़ का एक तालाब है। 1983 में गांव के लोगों को पता चला कि जिस तालाब को वह अपना समझते हैं, वास्तव में वह उनका नहीं है। मालगुजार का है। पूर्व दिशा का पांच एकड़ तालाब मालगुजार ने किसी नागपुर वाले को बेच दिया। पश्चिम का नौ एकड़ एक और नागपुर वाले को बेच दिया और बीच का पांच एकड़ सरकारी है। गांव वालों की भोली बुद्धि ने सच समझकर इसे मान लिया और फिर से दो जून की रोटी के जुगाड़ में लग गए।
लेकिन गांव के कुछ लोगों को यह बात हजम नहीं हुई। तालाब के बीच में कोई दीवार तो है नहीं। फिर इसके तीन हिस्से हुए कैसे? तालाब की तरफ देखकर आंखें यह तय नहीं कर पा रही थीं कि तालाब कहां से कहां तक बिक गया है और कहां से कहां तक सरकारी है।
किसका कितना पानी है? तालाब में होने वाली मछली पर किसका कितना हक है? अब यह मछली तो सरकारी कागजात नहीं जानती। वह तो पूरे तालाब में कागजों पर बनी सीमाओं को तोड़ते मस्त इधर से उधर घूमती रहती है। तालाब की देखरेख का, उसकी मरम्मत का, कौन कितना जिम्मेदार है? गांव वालों को ये प्रश्न दिन रात सताने लगे।
एक आम आदमी को जो अधिकार दिया गया है, उसका इस्तेमाल कुछ गांव वालों ने करने की योजना बनाई। एक प्रार्थना-पत्रा लिखा गया और फिर शुरू हुआ न्याय पाने के लिए सरकारी दफ्तरों के चक्करों का एक और अंतहीन सिलसिला। न्याय की उम्मीद में कलेक्टर, एस.डी.ओ., तहसीलदार के पास पहुंच जाते व न्याय की फरियाद करते। लेकिन आप जानते ही हैं कि सभी सरकारी काम गोपनीय होते हैं। इसलिए गांव वाले इस आश्वासन के साथ कि जांच जारी है, वापिस गांव लौटा दिए जाते।
फिर एक दिन आया अण्णा हजारे का सूचना का अधिकार। कुछ गांव वालों ने इसका प्रयोग करना सीखा। प्रयोग किया तो तालाब के पुराने रेकार्ड तहसीलदार को मजबूरन देने पड़े। इसमें तो साफ लिखा था कि तालाब की मालिक सरकार है और पूरे गांव को इसके पानी पर हक है। पहले सिर्फ कुछ लोग ही इस तालाब की लड़ाई लड़ रहे थे। अब कागजात सामने आने के बाद पूरे गांव में जाग्रति आ गई और सचमुच यहां तो बच्चा-बच्चा यह कहने लगा कि यह तालाब हमारा है।
लेकिन जिन रेकार्ड ने पूरे गांव की आंखें खोल दीं, वे कागज सरकारी अधिकारियों की आंखें नहीं खोल पाए। तब हम सब क्या करते? कागज रखे एक तरफ और हमने खुद काम शुरू किया। अब वलनी गांव के लोग इस तालाब को पिछले पांच वर्ष से स्वयं के बलबूते पर खोद रहे हैं। हर वर्ष गर्मियों में तालाब के सूख जाने पर एक जे.सीबी. व चार टिप्पर किराए पर लिए जाते हैं। तालाब की मिट्टी खोदी जाती है।
साद किसानों के खेतों में डाल दी जाती है। प्रति टिप्पर चार सौ रुपए का खर्च आता है। जिस किसान को खेत में जितनी मिट्टी चाहिए हो, उतनी उसकी राशि वह ग्राम सभा द्वारा गठित कमेटी के पास जमा करा देता है। पिछले पांच वर्षों में इस तालाब पर ग्राम सभा ने सात लाख रुपए की खुदाई की है। तालाब भी गहरा हो गया है और साद, मिट्टी डालने वाले किसानों की फसल भी दो गुनी हो गई है।
अब गर्मियों में आसपास के 12 गांवों के पशु पानी पीने वलनी गांव आते हैं। और कहीं पानी नहीं होता।

यह है वलनी वासियों का अहिंसक आंदोलन। छब्बीस वर्ष गवाह हैं इसके। अपनी मांगों के साथ कर्तव्य भी बखूबी निभा रहा है यह छोटा-सा गांव। न कोई कोर्ट कचहरी, न तोड़ फोड़, न कोई नारेबाजी। सिर्फ फरियाद वह भी खुद से कि अब तो चेतो।

(योगेश अनेजा नागपुर से  22-23 किलोमीटर  दूर वलनी गाँव, जो अब नागपुर जिले के २२०० गाँव में से एकमात्र आदर्श गाँव बचा है, लगातार एक तालाब बचाने के संघर्ष में जुटे हुए हैं. उनकी प्राकृतिक संसाधनों को बचाने की  समझ अनोखी है. साथ ही संघर्ष के तरीके भी. वे नागपुर में मोटर पार्ट्स का एक छोटा-सा व्यापार करते हैं, पर दिल से अच्छे समाज के अविष्कारक हैं. उनसे फ़ोन क्रमांक 0712-2763957 पर संपर्क किया जा सकता है.)  


योगेश अनेजा और उनके काम के विषय में ज्यादा जानने के लिए आपको इस लिंक पर जरूर क्लिक करना चाहिए  www.falgunvishwa.com


खान-पान के अहम् फाल्गुन नियम

प्रतीकात्मक पेंटिंग : पुष्पेन्द्र फाल्गुन  इन्टरनेट या टेलीविजन पर आभासी स्वरुप में हो या वास्तविक रुप में आहार अथवा खान-पान को लेकर त...