गुरुवार, 26 मई 2011

एक जून को फाल्गुन विश्व की पहली वर्षगाँठ है


आगामी एक जून को फाल्गुन विश्व की पहली वर्षगाँठ है. यों १७ जुलाई २००९ को फाल्गुन विश्व एक साप्ताहिक के तौर पर पाठकों से रू-ब-रू हुआ था, लेकिन एक सांस्कृतिक-वैचारिक पत्रिका को हर सप्ताह सिर्फ उत्साह और जिद के भरोसे नहीं प्रकाशित किया जा सकता. मार्च २०१० में पत्रिका बंद हो गई. लेकिन जून २०१० में हमने मासिक के तौर पर वापसी की. रंगीन आवरण में हमने फाल्गुन विश्व का प्रवेशांक प्रकाशित किया. महज ५०० प्रतियां छपी गई. इससे ज्यादा छपने का पैसा ही नहीं था. प्रवेशांक को पाठकों ने हाथों-हाथ लिया लेकिन जुलाई का अंक छापने के लिए जरूरी धन एकत्रित नहीं हो पाया, लिहाजा जुलाई और अगस्त का अंक संयुक्त रूप से प्रकाशित करने का निर्णय हुआ. लेकिन अगस्त में भी जरूरी धन में कमी रह गई, सो जुलाई-अगस्त और सितम्बर का संयुक्त अंक प्रकाशित हुआ. लेकिन आवरण ब्लैक-वाइट रहा. इस बार भी प्रतियां ५०० ही छपी गई. पाठकों ने इस अंक को भी तहेदिल से स्वीकार किया.

अक्तूबर में कुछ मित्रों के सुझाव पर सदस्यता मुहिम चलाई गई. महज दस रुपये में साल भर पत्रिका देने की बात हुई. यह योजना बनी की यदि देश भर में पत्रिका के दस हज़ार पाठक इस मुहिम के जरिये जोड़ लिए जाते हैं तो हमारे पास एक लाख रुपये जमा हो जायेंगे, जिससे पत्रिका निकालने के वास्ते अंटी में कुछ पैसा हो जाएगा और दस हज़ार पाठकों का साथ मिल जाएगा, जिससे विज्ञापन पाने में कुछ आसानी होने लगेगी. इस मुहिम के लिए बड़ी संख्या में शुभचिंतकों के सहयोग की जरूरत थी. कुछ मित्रों ने आगे बढ़कर इस मुहिम का जिम्मा लिया. तय हुआ की हरेक मित्र अपने दस मित्रों को इस मुहिम में जोड़ेगा. हमें कुल ४०० साथियों की जरूरत थी, जिनमें से हरेक को २५-२५ सदस्य बनाने थे, जिससे एक साथी के जरिये फाल्गुन विश्व के अकाउंट में २५० रुपये पहुँचता, इस तरह ४०० साथियों के जरिये आसानी से हम एक लाख रुपये इकट्ठा कर लेते. 

मुहिम शुरू हुई, एक समय सीमा बनाई गई की एक महीने के भीतर-भीतर अपने लक्ष्य को पूरा कर लिया जाएगा. जिन मित्रों ने बढ़-चढ़ कर इस मुहिम का जिम्मा लिया था, अचानक उन्हें जरूरी काम याद आने लगे और एक महीना ख़त्म होते-होते महज दस साथी ही सदस्यता मुहिम को अंजाम दे पाए. सीधी भाषा में हमारे योजना की हवा निकल चुकी थी. कई साथी अपनी जेब से २५० सौ रुपये देने को तैयार थे, लेकिन पाठक बनाने को तैयार नहीं थे. मुझे उनकी इस उदारता का कारण आज तक नहीं मालूम है.

एक लाख की जगह अंटी में ढाई हज़ार रुपये आये. एक लम्बी सांस लेकर फिर से शुरुवात का निर्णय हुआ. अबकि बार साथ में कोई न था. लेकिन जाने क्यों हौसला कम नहीं हुआ. घर में नज़र दौड़ाई और उन गैर-जरूरी चीजों पर जाकर नज़र टिक गई, जिनके बिना भी गृहस्थी की गाड़ी आसानी से चल सकती थी. एक-एक कर वे चीजें घर में कम होने लगी, पत्रिका नियमित निकलने लगी. पत्रिका को ख़ास लोगों तक पहुंचाने का कोई तुक नहीं था, सो आम लोगों तक पत्रिका पहुचाई गई. आम लोगों ने पत्रिका को हाथों-हाथ लिया.

जनवरी आते-आते एक हज़ार पाठक फाल्गुन विश्व पढ़ने लगे. यह भी सच है कि सभी लोग खरीद कर पत्रिका नहीं पढ़ रहे थे, लेकिन जो लोग भी पत्रिका ले रहे थे, वे पत्रिका पढ़ रहे थे, उस पर मुझसे बात कर रहे थे. पत्रिका में छपी रचनाओं से सहमती-असहमति जता रहे थे, और अपने खर्च से गोष्टियाँ कर रहे थे, जिसमें पत्रिका में छपी रचनाओं पर चर्चा हो रही थी. एकाध बार उन लोगों ने मुझे भी बुलाया, लेकिन निजी कारणों से मैं उनकी चर्चाओं में शामिल न हो सका.

आज नागपुर समेत समूचे विदर्भ में पांच हज़ार से ज्यादा लोग फाल्गुन विश्व पढ़ते हैं और ये वे लोग हैं जिनके पास इन्टरनेट और कंप्यूटर जैसी सुविधाएं नहीं है. मोबाइल है तो सिर्फ इसलिए कि अपने जानने वालों का हाल-चाल पूछ सकें, बता सकें. टी.वी है लेकिन उसे चलाने के लिए बिजली नहीं है. उनके लिए फाल्गुन विश्व जैसे दीन-दुनिया को समझने के एक जरिया बन गई है. मेरा भी सारा ध्यान अपने इन अमूल्य पाठकों पर केन्द्रित है. कई ऐसे आदिवासी युवा हैं जो पत्रिका पढ़ लेने के बाद चर्चा के लिए मेरे पास आते हैं. उनसे बात कर मेरा ज्ञान बढ़ रहा है, मेरी समझ बढ़ रही है. संकल्प दृढ़ हो रहा है....

कई मित्र कहते हैं कि आपकी पत्रिका में लगभग वही रचनाएँ रहती है, जिसे हमने पहले ही इन्टरनेट पर पढ़ लिया है. उनकी बात सही भी है. मैं जानकीपुल.कॉम, मोहल्ल लाइव.कॉम, समालोचना.ब्लागस्पाट.कॉम जैसी वेब पत्रिकाओं से साभार रचनाएं अपनी पत्रिका में छपता रहता हूँ. क्योंकि मैं मानता हूँ कि अच्छी रचनाओं पर मात्र उन्हीं पाठकों भर का अधिकार नहीं है, जो इन्टरनेट पर इन्हें पढ़ सकते हैं. मैं जिस भी वेब पत्रिका से रचना लेता हूँ, अपनी पत्रिका में उस वेब पत्रिका का उल्लेख करता हूँ और उन्हें रचना का श्रेय देता हूँ. 

दिसंबर २०१० में मुझे राज रगतसिंगे का साथ मिला. राज साहब जैसा कि मैं उन्हें प्यार से कहता हूँ, एक बीमा एजेंट हैं, लेकिन पढ़ने-पढ़ाने के शौक़ीन. उन्होंने जनवरी से फाल्गुन विश्व को प्रकाशित करने का मासिक खर्च उठाना शुरू किया. इस काम में वे मनीष गायकवाड़ नामक अपने मित्र की मदद लेते हैं. मनीष पत्रिका छापने का खर्च देते हैं और राज साहब पाठकों तक पहुंचाने का इंतजाम करते हैं. फिलहाल इसी तरह यह सफ़र जारी है. हर महीने पांच हज़ार प्रतियां छप रही हैं और उन पाठकों तक पहुँच रही हैं, जिनमें इसे पढ़ने की ललक है.

फाल्गुन विश्व का सफ़र जारी है और अपनी पहली वर्षगाँठ पर मैं अपने माता-पिता, अपनी पत्नी और बेटियों के साथ अनुज धर्मेन्द्र और भाई लीलाधर का भी शुक्रगुजार हूँ. इन सभी के परिश्रम के बिना फाल्गुन विश्व का एक भी अंक साकार न हो पता. आइये फाल्गुन विश्व के हमसफ़र बनिए, आपका स्वागत है...

बुधवार, 25 मई 2011

ये हैं सबीहा खुर्शीद, नहीं डाक्टर सबीहा खुर्शीद.


ये हैं सबीहा खुर्शीद, नहीं डाक्टर सबीहा खुर्शीद. नागपुर के पास एक छोटे से कस्बे कामठी में रहती हैं. सबीहा ने हाल ही 'उर्दू में माहिया निगारी' पर पी.एचडी. हासिल की है. इस विषय पर अनुसंधान करने वाली वे देश और दुनिया की पहली शख्सियत हैं. पंजाब में लोकगीत के तौर पर माहिया की बड़ी प्रतिष्ठा है. लेकिन पंजाबी में माहिया के आगाज़, इर्तेका और उर्दू में इसके इब्तेदा के साथ उर्दू में होने वाले वजन और मेज़ाज़ को सबीहा ने अपने अनुसन्धान का विषय बनाया. उन्होंने माहिए के लिए किये जाने वाले तजुर्बात को भी निशान ज़द किया और माहिया कहने वालों को उनके इलाकाई हवाले से उजागर किया है. सबीहा के अनुसन्धान में मगरीबी दुनिया के माहिया निगार, हिन्दुस्तान के माहिया निगार, पकिस्तान के माहिया निगार तफसील से अपनी जगह बनाए हुए हैं. उर्दू माहिए के बानी हिम्मत राय शर्मा और इस तहरीक के रूह-ए-रवां हैदर कुरैशी तक, सभी से सबीहा आपका परिचय पूरी शिद्दत के साथ कराती हैं.
सबीहा एक बुनकर के घर पैदा हुईं और तमाम जद्दोजहद के साथ अपनी शिक्षा को उन्होंने एक मुक्कल मुकाम तक पहुंचाया है. अपने घर में पढ़ने-लिखने का जुनून रखने वाली पहली ही शख्स बनीं, जिससे एक बहन और एक छोटे भाई ने भी शिक्षा को अपने जीवन लक्ष्य पाने का जरिया बनाया. सबीहा के सबसे बड़े भाई शहीद युसूफी गैस-बत्ती का छोटा सा कारोबार करते हैं और अपनी सीमित कमाई से इतना इंतजाम जरूर करते रहे कि सबीहा की पढ़ाई और पी.एचडी. में ज़रा भी बाधा न आये.
सबीहा को राष्ट्रसंत तुकडोजी महाराज विश्विद्यालय यानि नागपुर विश्वविद्यालय जल्द ही 'उर्दू में माहिया निगारी के लिए 'पी.एचडी.' प्रदान करने जा रहा है. सबीहा को अशेष-अनंत शुभकामनाएं...

मंगलवार, 24 मई 2011

कहाँ हो तुम?


अब तो तुम्हारी छवि भी स्मृतियों से धूमिल होने लगी है
दिन में एक बार
उस मोड़ से गुजरना ही होता है मुझे
जहां तुम्हें हँसते देखकर
गिर पड़ा था वह सावंला बाइक सवार अपनी होंडा सीडी हंड्रेड से
उस पुल पर से भी
जिस पर न जाने कितनी ही बार
ठहर गया था समय
तुम्हें गुजरते देख

तुम्हें याद है
मुकेश का वह दर्दीला गीत
'दीवानों से ये मत पूछो...'
जिसकी अंतिम दो पंक्तियाँ
मैं अपनी नाक दबा कर गाता था
और तुम गीत के तमाम दर्द को महसूसने के बावजूद
खिलखिला कर हंस पड़ती थी

हिस्लॉप कॉलेज के प्रांगण
में उस रोज जब
बहुत दिनों बाद देखा था मैंने और तुमने
एक-दूसरे को
तो हमारे चेहरे के लाली चुराकर भाग गया था
सूर्य आकाश में
याद है न तुम्हें!

कैसी हो तुम या कैसी होगी?
इस सवाल का जवाब कभी नहीं ढूँढा मैंने
तुम्हें ढूंढते हुए भी
लेकिन मुझे हमेशा अंदेशा लगा रहता है कि
कहीं घट न रही हो
तुम्हारे मुस्कान की लम्बाई इस कठिनतम दौर में

तुम्हारे चेहरे का हर शफा
मैं लगभग भूल चूका हूँ
सिवाय तुम्हारे मुस्कान के
भूल चुका हूँ सारी बातें
सिवाय उस मौन के जिसे
तुमने कभी नहीं तोड़ा
मैंने तोड़ना चाहा तब भी

एक बार और देख लेने की तमन्ना है तुम्हें
क्योंकि मेरी ही तरह बदल गई होगी
तुम्हारी भी डील-डौल
और अब हिचकियाँ तुम्हें भी
होली-दिवाली पर ही आती होंगी

एक बार और देख लू तुम्हें
तो कम से कम कुछ दिन तो
आराम से सो पाउँगा
पिछले सत्रह सालों से नहीं सोया हूँ
क्या तुम सोयी?

रविवार, 22 मई 2011

वह चाहता है


वह चाहता है 
कोई आदमी
उसे आदमी न कहे
मेले में उस रोज
घुमा आया है वह
अपनी आदमियत

वह चाहता है 
उसे मित्र न माना जाए
कितने ही मित्रों की जेबें
वह कर चुका है छलनी

वह चाहता है 
दुनिया भर के लोग
अमन और अधिकार से जीवित रहें
मरने पर सभी का अभिवादन किया जाए

वह चाहता है  
राह चलती स्त्रियाँ
यों ही न जाने दें अपनी खुजली
वह चाहता है 
समाज अपने बवासीर का इलाज़ 
जल्द से जल्द कराये

हालांकि सब की तरह आप भी उसे पागल कह सकते हैं
वह चाहता है
उसे पागल न कहा जाए
न माना जाए

(कविता संग्रह 'सो जाओ रात' से) 

गुरुवार, 19 मई 2011

१९ मई १९९६ को मेरी उम्र २२ साल की थी और मेरी दुनिया बदल गई थी.

(मेरी शरीक-ए-हयात सुषमा)

२१ बरस का होते ही मैंने समाज को बेहतर बनाने का सपना देखते हुए घर छोड़ दिया था. साथ मौसेरे भाई हेमधर भी थे. हमने तय किया था की बस चलते जायेंगे सन्यासियों की तरह और समाज को समझते-समझाते समूचा जीवन बिताएंगे. कृष्ण जन्माष्टमी की रात हमने चुपके से घर छोड़ा. दोनों भाइयों ने एक-एक चिट्ठी लिखी और अपने-अपने घर के पूजा-घर में 'भगवान् के सिंहासन' में रख आये. 'भगवान् के सिंहासन' में इसलिए कि हम दोनों के पिता सुबह भोर में ही स्नान कर लेते थे और घंटों पूजा घर में बिताते थे. भगवान् को नहलाते समय सिंहासन साफ़ किया जाता था और उस समय उन्हें चिट्ठियां आसानी से मिल सकती थीं. चिट्ठियों में यही लिखा था कि हम लोग अपनी मर्जी से घर छोड़ कर जा रहे हैं और हमें ढूंढने की कोई कोशिश न की जाए... अब से यह दुनिया ही हमारा घर है... 
रात बारह बजे घर से निकल कर हम दोनों अधाधुंध पैदल चलते रहे... सुबह होते-होते हम लोग लगभग साठ किलोमीटर पैदल चल चुके थे. महाराष्ट्र बार्डर पार कर हम दोनों मध्यप्रदेश की सीमा में आ गए थे. अपने ज़रा से कानूनी ज्ञान से हम इतना जानते थे की यदि पुलिस की मदद से हमारे परिजन हमें ढूंढने की कोशिश करेंगे तो राज्य सीमा बदल जाने से हम आसानी से उनके हाथ नहीं आयेंगे. खवासा नामक उस सीमान्त गाँव में हम दोनों ने एक होटल में जलपान किया. जलपान के बाद चलने में दिक्कत होने लगी. हेमधर तो चलते-चलते दो-तीन बार गिर गए. हमने कुछ देर बैठकर फिर चलने का निर्णय किया. बैठे-बैठे हेमधर रो पड़े. उन्हें अपने पिता की चिंता होने लगी. वह पिता के साथ अकेले रहते थे. बाकी परिवार गाँव में रहता था. उनका विवाह भी हो चुका था. एक-एक कर उन्हें सब की याद आने लगी. और जब उनका रोना बढ़ गया तो मैंने उनसे घर लौट जाने का अनुनय किया. वह मेरे बिना घर लौटने को तैयार न थे. मैंने घर लौटने से साफ़ मना कर दिया. फिर वे अकेले ही लौटने को तैयार हो गए. वापस खवासा लौट कर उन्हें बस में बिठाया. क्योंकि हम लोग पैसे लेकर घर से चले ही न थे, सो उनका बस का टिकट कटाने के लिए मुझे बस के यात्रियों से 'भीख' मांगनी पड़ी.
भाई हेमधर लौट गए और मैंने अपनी यात्रा जारी रखी...
पता नहीं, कैसा जोश था. हेमधर खवासा से साढ़े आठ बजे सुबह नागपुर के लिए बस से रवाना हुए थे और मैं उसी समय जबलपुर की दिशा में पैदल. साढ़े तीन बजे मैं सिवनी पहुँच गया. मेरे मित्र लीलाधर सोनी (जो इस समय एक कंपनी में प्रोजेक्ट इंजीनिअर हैं) उस समय सिवनी के शासकीय पोलिटेक्निक कॉलेज में इलेक्ट्रिक इंजीनिअरिंग की पढ़ाई कर रहे थे. मेरे पास उनके कॉलेज का फोन नंबर था. कॉलेज में फोन किया. सोनी जी उस समय प्रयोगशाला में थे. कुछ देर बाद उनसे बात हुई. मैंने उन्हें बताया कि मैं घर छोड़कर दुनिया को बेहतर बनाने निकला हूँ. पैदल ही हूँ. आज रात आपके कमरे पर विश्राम की इच्छा है. कल सुबह होते ही आगे कूच कर जाऊँगा. सोनी जी ने फोन पर यह कहते हुए मुझे जहां का तहां खड़े रहने की हिदायत दी कि वे तुरंत मुझे लेने आ रहे हैं. दस मिनट भी न बीते होंगे कि वे अपने दो मित्रों के साथ आ गए. मुझसे गले मिले और दोस्तों की तरफ देखकर कहने लगे, 'हम लोग बेकार की प्रयोगशाला में समय बर्बाद कर रहे थे, इनसे मिलिए ये हैं चलती-फिरती लेकिन जीवंत प्रयोगशाला.' और इसके बाद हंसी-ठहाकों का लम्बा दौर चलता रहा. हम रिक्शे से उनके कमरे पर पहुंचे. सोनी जी अपने चार मित्रों के साथ रहते थे. दो कमरों में दो-दो लोग रहते थे.
कुछ देर बाद मुझे एकदम हेमधर की याद आयी और यह भी कि वे घर लौट गए हैं.
हेमधर भी लगभग उसी समय घर लौटे, जिस समय मैं सिवनी पहुंचा था. बस स्टैंड से सीधे वे मेरे घर गए और वहाँ सारा किस्सा एक ही बार में बता गए. उस समय तक घर में हडकंप मच चुका था. पिता बदहवास मेरे जाने वालों के बीच मुझे ढूंढने की नाकाम कोशिश कर रहे थे. चिट्ठी के हिसाब से मैं दुनिया बेहतर बनाने निकला था और उन्हें यह समझ नहीं आ रहा था कि दुनिया बेहतर बनाने के लिए अपना घरबार छोड़ने की जरूरत क्या है. अपना यही असमंजस वे मेरे सभी मित्रों से साझा कर रहे थे. दोपहर बाद जब हेमधर के घर लौटने की खबर उन तक पहुंची तो वे मेरे एक मित्र के साथ स्थानीय पुलिस स्टेशन में बैठे थे. हेमधर की लौटने की खबर से वे उत्साहित हुए और मेरे गुमशुदगी की रपट लिखाए बिना ही घर लौट आये.
हेमधर की लौटने की खबर पाकर मेरे मौसाजी भी मेरे घर पहुँच गए थे. मौसा जी मेरे घर से कोई एक किलोमीटर की दूरी पर रहते थे. मेरे पिता और मौसा दोनों ही कोयला मजदूर थे और दोनों को शासकीय आवास आवंटित था. हेमधर भाई ने अब चाहे जिस तरह अपनी बात रखी, लेकिन उसका यही अर्थ लगाया गया कि मैंने उन्हें बरगला कर घर से भागने के लिए मजबूर कर दिया था. क्योंकि खवासा में सुबह नाश्ता करते समय मैंने हेमधर को यह बताया था कि शाम तक हमें सिवनी पहुंचना है और वहाँ लीलू भाई के यहाँ आराम. फिर सुबह उनके यहाँ से चलकर शाम तक जबलपुर और रात पुनश्च जबलपुर में आराम. इस तरह प्रतिदिन के चलने और रूकने के इंतजाम के बारे में मैंने उन्हें बताया था. हालाकि हम जिन भी मित्रों के यहाँ रात रुकने वाले थे, उनमे से किसी को भी हमारे इस 'मिशन' के बारे नहीं मालूम था.
बहरहाल, हेमधर की बातों से मेरे पिता को मालूम हो चुका था कि मैं उस रात सिवनी में लीलाधर सोनी के साथ रहूँगा. सोनीजी के मामा हमारे पडोसी थे. उन्हें सिवनी में लीलाधर का घर मालूम था.
हेमधर की याद आते ही मैंने अपनी आशंका लीलू भाई को बताई और यह डर भी उनसे साझा किया कि मेरे पिता, उनके मामा के साथ मुझे ढूंढते हुए वहाँ आ सकते हैं. सो हमने इस पकड़ से बचने की एक योजना बनाई. योजना यह थी कि लीलू भाई अपने मामाजी के घर फोन करेंगे और उनसे अर्जेंट पैसों की मांग करेंगे. यह भी कहेंगे कि वे पैसे लेने आज रात ही आ रहे हैं. बात-बात में सोनी जे मेरा हाल-चाल भी पूछेंगे, जैसा कि वे हर बार फोन करते समय करते हैं. कई बार तो वे मुझे फोन पर बुलाने के लिए भी अपने मामाजी से कहते हैं. इससे वहाँ के लोगों को यह यकीन हो जाएगा कि मैं सिवनी में उनके पास नहीं रुका हूँ.
सोनी जी ने अपने मामा को फोन किया और पैसो के अर्जेंसी बताई, साथ ही यह भी कहा कि बस वे थोड़ी ही देर में नागपुर के लिए निकल रहे हैं. लेकिन फोन पर वे मेरे बारे में बात नहीं कर पाए. सात बजे की बस से वे नागपुर के लिए रवाना हो गए. रात ग्यारह बजे के आसपास वे कन्हान (नागपुर के समीप के क़स्बा जहाँ मैं रहा करता था और अभी भी रहता हूँ) पहुँच गए. वहाँ उनके मामा स्कूटर लेकर उनका इंतज़ार कर रहे थे. उन्हें स्कूटर पर बैठकर उनके मामाजी चल पड़े. कुछ ही दूरी पर दो अलग-अलग स्कूटर पर मेरे पिता और मोहल्ले के तीन लोग और थे. इस तरह बिना किसी औपचारिक पूछताछ के वे लोग लीलू भाई को लेकर तीनों स्कूटर राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक सात पर दौड़ाने लगे. रात ११ बजे कन्हान से चलकर वे लोग सुबह चार बजे के आसपास सिवनी लीलू भाई के कमरे पर दबिश देने पहुँच गए.
सीढ़ियों पर कदमों की आहट से मेरी नींद खुल गई. और मैंने अपनी बगल में सोये लीलू भाई के मित्र को जगाकर इतना ही पूछा कि यहाँ से भागने के लिए मुख्य दरवाजे के अलावा और कोई रास्ता है? लेकिन वे मित्र महाशय गहरी नींद में थे और उन्होंने हाथ के इशारे से पीछे की तरफ इशारा किया. तबतक दरवाज़े पर दस्तक दी जाने लगी थी और मैं फ़टाफ़ट अपने कपडे पहनकर पिछला दरवाज़ा ढूंढ रहा था. मुझे पिछला दरवाज़ा नहीं मिला और दस्तक तेज़ होने की वजह से कमरे में रहने वालों को दरवाज़ा खोलना ही पड़ा. हताशा में मैं पानी की टंकी के पाइप पर चढ़ने की कोशिश करने लगा, लेकिन पाइप प्लास्टिक का था, सो पहले ही झटके में मुझे लेकर जमीदोंज हो गया. मैं फर्श पर पड़ा कराह रहा था, पिता मेरे सिराहने पहुँच चुके थे. लीलू भाई उनके साथ थे. उन्होंने ही सहारा देकर मुझे उठाया और अत्यंत लाचारगी से मेरी और देखा.
पिता गुस्से से मेरी और देखे जा रहे थे. मुझे सामने के कमरे की चारपाई पर बिठाया गया. पिता ने और कुछ नहीं कहा. बस इतना ही कि 'महाराज अभी घर चलो, आपके बहन की शादी हो जाए तो आप जहां चाहे मर्ज़ी चले जाना...'
लीलू भाई ने मुझे घर लौट जाने की सलाह दी. पिता के साथ आये हुए लोगों से माँ की तबियत का हवाला दिया. माँ ब्लड प्रेशर की मरीज़ थी और मुझे उनकी चिंता होने लगी. सभी ने यही समझाया कि दुनिया अपने घर पर रहकर भी बदली जा सकती है.
वह क्षण भावुकता से भरा हुआ था और शायद ठहरा हुआ भी...
मैं पिता के साथ घर लौट आया. लीलू भाई भी लौटाए गए. उन्होंने पैसों की अर्जेंसी का जो बहाना किया था, उसे उनके मामाजी ने बहाना नहीं माना था.
घर लौटा, तो माँ ने एक ही सवाल किया, 'क्यों लौट आये?' मैं माँ का चेहरा देखता रह गया. वे एकदम शांत थीं. मुझे उन लोगों पर खूब गुस्सा आया जिन्होंने माँ की तबियत का हवाला दिया था.
अगले ही दिन पिता ने मुझे अपने एक मित्र के यहाँ नज़र कैद कर दिया. लगभग एक साल तक नज़र कैद रखने के पश्चात मेरी शादी का फैसला हुआ. मुझे उस रोज़ मालूम हुआ, जिस दिन मेरा तिलक होना था. नाऊ ठाकुर एक जोड़ी कपडा लेकर आया और मुझे से कहने लगा कि जल्दी से नहा-धोकर इसे पहन लो और घर आ जाओ. मुझे लगा कि शायद मेरी रिहाई का वक़्त आ गया है. घर पहुँचने पर मालूम हुआ कि मेरा तिलक होना है. मैंने जब भीतर जाकर माँ से पूछा कि यह सब क्या है, तो उन्होंने बस इतना ही कहा, 'घुट-घुट कर जीना नहीं है अब मुझे...'
१९ मई १९९६ को २२ साल की उम्र में मेरा विवाह हो गया. दुनिया बदलने का सपना और मुगालता मैं अब भी पाले हुए हूँ. मेरी दुनिया जरूर बदल गई है. माँ की दुनिया भी बदल गई है. लिखने-पढ़ने और जीवन को समझने की उम्र में जिस व्यक्ति को आटे-दाल और नमक का भाव मालूम हो जाता है... दुनिया बदलने का माद्दा उसी में आता है... अपने अनुभव से यह बात कह रहा हूँ भाई!

बुधवार, 18 मई 2011

शहर का पुल


उगता है सूर्य
उसी पुल के नीचे से और पीछे से रोजाना
कि जिस पर दिन भर दौड़ता है शहर
और रात में लकलकाता है सन्नाटा 

तेज होती सिसकारियों पर
अंकुश लगाने के प्रयास में
एक बूढ़ी खंखारती है 
उत्तेजित युवती झकझोरती है अपने पियक्कड़ पति को 
जो भरभरा गया है
उकसाकर उसे
युवती बिलखती है
उसका विलाप कुलबुला देता है
पुल पर खड़े तमाम रिक्शों और ठेलों को

शहर भर में बिखरा फुटपाथ
सिमट आता है रात में
पुल पर लगी उन दो तख्तियों के बीच
कि जिस पर खोंइची गई हैं
भूमिपूजन से शिलान्यास तक की तारीखें
और उबटा हुआ है किसी उदघाटनकर्ता का नाम
पुल निर्माता कंपनियों के साथ
तख्तियां सलामत हैं कि कुत्ते
सींचते हैं उन्हें प्रतिदिन
बिना सूंघे ही

पुल के नीचे 
प्रभु के वराह अवतार के लिए
हर सुबह
इलाके के लोग छोड़ आते हैं रौरव

किशोरों की आँखों में पनपता है
मिनी स्कर्ट और पैन्टियों के रंग सना आशावाद
इसी पुल के नीचे

कई स्त्रियों की पेट की आग में
पड़ता है पानी इसी पुल के नीचे

एक युवक इस पुल को देख-देख
बन गया है नामी लेखक

वह बूढ़ा जो आप सबका सम्राट है
इस पुल पर बोल सकता है कई-कई घंटे लगातार

पुल के नीचे से बहा करता है
एक बड़ा नाला इस निर्देश के साथ कि
शहर भर का कचरा बहाना होगा उसे दूसरे शहर में
पता नहीं
दूसरे शहर में
कोई पुल है या नहीं

इस पुल पर जो नहीं रहते
वे देख सकते है टी.वी. पर 
शहर का पुल

(उन्नीस वर्ष की आयु में लिखी गई यह कविता 'सो जाओ रात' में संग्रहित है. कविता की डाइरी में इस कविता के नीचे १२ मई १९९३ की तारीख पड़ी है.)


सोमवार, 16 मई 2011

तलाश

(दिया मिश्रा एक रेखांकन)

मंजिल की तलाश उन्हें होती है
जिन्हें चलने (रास्तों) से डर लगता है...

बुधवार, 11 मई 2011

ईश्वर



दौड़ते हुए लोगों की आकांक्षा
दौड़ने के ख्वाहिशमंदों के लिए एक आकर्षण
दौड़कर थके और पस्त हुए लोगों के लिए होमियोपैथिक दवा

जो दौड़ न पाए
उनके लिए तर्क-वितर्क
दौड़ते-दौड़ते गिर गए जो
उनके लिए प्यास

जिसने अभी चलना नहीं सीखा
उसके लिए जरूरी पाठ्यक्रम

असल में ईश्वर
उपन्यास का एक ऐसा पात्र
जिसके अस्तित्व पर है
लेखक का सर्वाधिकार...

(कविता संग्रह 'सो जाओ रात से'..)


शनिवार, 7 मई 2011

संभव है?

(सुभाष तुलसीता द्वारा निर्मित 'पर्ण चित्र')

क्या यह संभव है कि
जागकर हम पहले
जाएँ आकाश में
और दरवाज़ा भड़भड़ाकर उसे जगाएं
और सूर्य
देखकर हमें चौंके
बरबस ही उसके मुंह से निकल पड़े
अरे तुम! इतनी सुबह?

या कि
सूर्योदय ही न हो
हम बस देखकर घड़ी
पहुँच जाएँ दफ्तर
बच्चे स्कूल
मजदूर फैक्ट्री
किसान खेत
महिलायें टेलीविजन के सामने

क्या यह संभव है कि
किसी रोज़ हम
चिड़ियों के घोंसलों में मुंह डाले
फुसफुसा रहे हों व्यंग्य से
कि उठो रानी
देखो कितना दिन चढ़ आया है
दाना चुगने नहीं जाओगी आज?

क्या यह संभव है कि
फूल हमारे इशारों से खिलें और मुरझाएं
और तितलियाँ हमसे पूछकर ही
फूलों का रस पायें

क्या यह संभव है कि
माँ
बनाकर खाना
खा जाए सारा
और दोपहर को बच्चे जब लौटें स्कूल से
और शाम को पति दफ्तर से
तो उन्हें दिखाए ठेंगा...


(वर्ष २००७ में प्रकाशित कविता संग्रह 'सो जाओ रात' से)


बुधवार, 4 मई 2011

आतंक, श्रद्धा और डर


लादेन मारा गया
सत्य साईं मर गए
दोनों ही मोस्ट वांटेड थे और रहेंगे

आतंक से श्रद्धा पैदा होती है
और श्रद्धा का आतंक कभी इंसान को उबरने नहीं देता

लादेन ने आतंक से श्रद्धा पैदा की
सत्य साईं ने श्रद्धा से आतंक फैलाया

दोनों ही इंसानियत के दुश्मन थे
दोनों ही मर चुके हैं

लेकिन डरे हुए इंसान मरे हुओं को कभी मरने नहीं देते
अपने डर के वलय में संजोंकर रखते हैं उन्हें
ताकि उनका डर
डर न लगे
श्रद्धा लगे, आस्था लगे, हौंसला लगे, प्रेरणा लगे

डरे हुए इंसान
इंसानियत के सबसे बड़े दुश्मन हैं
लादेन और सत्य साईं से भी बड़े

डरे हुए इंसान अतीत में रोप चुके हैं
और आगम में भी रोपेंगे अपना डर
यत्र-तत्र-सर्वत्र

इंसानियत और भविष्य को बचाना है
तो डरे हुए इंसानों 
तुम्हे मारना होगा अपने-अपने डर को

इंसानियत और भविष्य नहीं बचेगा
यदि डरा हुआ इन्सान मर जाए
अपने डर समेत एक दिन.... 


रविवार, 1 मई 2011

मेरी दिनचर्या


जिस रोज़ मैं गलतियां करता हूँ, उस रोज़ मैं दूसरों की गलतियां सहजता से नज़रंदाज़ कर देता हूँ...
जिस रोज़ मैं गलतियां नहीं करता, दूसरों की एक गलती भी मुझे नागवार गुजरती है...
:) :)) :)))

खान-पान के अहम् फाल्गुन नियम

प्रतीकात्मक पेंटिंग : पुष्पेन्द्र फाल्गुन  इन्टरनेट या टेलीविजन पर आभासी स्वरुप में हो या वास्तविक रुप में आहार अथवा खान-पान को लेकर त...