लगभग हँसते हुए लेकिन अत्यंत दृढ़ स्वर में उन्होंने कहा था, "नहीं."
मेरे रुआंसे चेहरे को देखकर उन्हें फिर हंसी आ रही थी. लेकिन उन्होंने हंसी को ज़ब्त करने का अभिनय किया.
मैंने लम्बी सांस खींचकर उनसे पूछा, "तो फिर किस बात से फर्क पड़ता है?"
चमकती आँखों और मुस्कुराते होठों के मालिक उस फकीर ने कहा, "इससे किसी को फर्क नहीं पड़ता कि आप आस्तिक हैं या नास्तिक, आप आत्मा और परमात्मा को मानते हैं या नहीं, आप कर्मकांडी हैं या नहीं, आप साम्यवादी हैं या नहीं, फर्क इस बात से पड़ता है कि आपका चित्त निर्मल है या नहीं. यदि आपके आस्तिक अथवा नास्तिक होने से आपका चित्त निर्मल हो जाता हो तो आप शौक से आस्तिकता अथवा नास्तिकता का ढोल बजाइए. लेकिन यदि आपका चित्त निर्मल नहीं हैं तो फिर किसी को इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि आप आस्तिक हैं या नास्तिक, साम्यवादी हैं या भाग्यवादी, कर्मकांडी हैं या कर्मवादी..."
वह बूढ़ा फ़कीर अपनी बात खत्मकर कब का जा चुका था और मैं अपनी हैरत को संभालने के तरीके ढूँढने में मशगूल था....