क्या यह संभव है कि
जागकर हम पहले
जाएँ आकाश में
और दरवाज़ा भड़भड़ाकर उसे जगाएं
और सूर्य
देखकर हमें चौंके
बरबस ही उसके मुंह से निकल पड़े
अरे तुम! इतनी सुबह?
या कि
सूर्योदय ही न हो
हम बस देखकर घड़ी
पहुँच जाएँ दफ्तर
बच्चे स्कूल
मजदूर फैक्ट्री
किसान खेत
महिलायें टेलीविजन के सामने
क्या यह संभव है कि
किसी रोज़ हम
चिड़ियों के घोंसलों में मुंह डाले
फुसफुसा रहे हों व्यंग्य से
कि उठो रानी
देखो कितना दिन चढ़ आया है
दाना चुगने नहीं जाओगी आज?
क्या यह संभव है कि
फूल हमारे इशारों से खिलें और मुरझाएं
और तितलियाँ हमसे पूछकर ही
फूलों का रस पायें
क्या यह संभव है कि
माँ
बनाकर खाना
खा जाए सारा
और दोपहर को बच्चे जब लौटें स्कूल से
और शाम को पति दफ्तर से
तो उन्हें दिखाए ठेंगा...
बच्चे स्कूल
मजदूर फैक्ट्री
किसान खेत
महिलायें टेलीविजन के सामने
क्या यह संभव है कि
किसी रोज़ हम
चिड़ियों के घोंसलों में मुंह डाले
फुसफुसा रहे हों व्यंग्य से
कि उठो रानी
देखो कितना दिन चढ़ आया है
दाना चुगने नहीं जाओगी आज?
क्या यह संभव है कि
फूल हमारे इशारों से खिलें और मुरझाएं
और तितलियाँ हमसे पूछकर ही
फूलों का रस पायें
क्या यह संभव है कि
माँ
बनाकर खाना
खा जाए सारा
और दोपहर को बच्चे जब लौटें स्कूल से
और शाम को पति दफ्तर से
तो उन्हें दिखाए ठेंगा...
(वर्ष २००७ में प्रकाशित कविता संग्रह 'सो जाओ रात' से)