सोमवार, 29 जुलाई 2019

खान-पान के अहम् फाल्गुन नियम

प्रतीकात्मक पेंटिंग : पुष्पेन्द्र फाल्गुन 
इन्टरनेट या टेलीविजन पर आभासी स्वरुप में हो या वास्तविक रुप में आहार अथवा खान-पान को लेकर तोता रटंत दोहराव ही दिखाई देते हैं. हम जो भी खाते या पीते हैं उसका हमारे शरीर पर वात-पित्त-कफ के स्वरुप में ही दोष उत्पन्न होता है और कुछ नहीं. शरीर के किसी भी अवयव में, रक्त में, मास-मज्जा या मेरु में जितने भी रोग होते हैं उन सभी के मूल में वात-पित्त-कफ ही है.
#वात_पित्त_कफ
हमारे मनीषियों ने ऋतुओं के साथ-साथ तिथि और वार के हिसाब से खान-पान के नियम सुझाए थे. तय है कि यह किसी एक विद्वान् द्वारा बनाए नियम नहीं थे और किसी एक खास अवधि में या फिर सीमित अवधि के लिए नहीं बनाए गए थे. मैंने इन सभी नियमों का कई-कई बार अध्ययन किया और मूल निकष पर पहुँचा. मूल निकष यही है कि हमारे खान-पान ऐसे हों कि जिससे शरीर में वात-पित्त-कफ के त्रिदोष उपद्रव न करने पाएं.
#कहाँ_से_क्या_क्या
सबसे पहले खान-पान में प्रयुक्त कुछ तत्वों को समझिए, जैसे, हम जो भी खाते हैं वह तो बेलवर्गीय है या पौधे पर उगने-लगने वाला या फिर जमीन के भीतर उपजने वाला कंद-मूल. हैं न!
दूसरा, हम ऐसी चीजें भी खाते हैं जो पशुधन से हम तक पहुँचता है, जैसे दूध, अंडा या मांस.
तीसरी बात पेय पदार्थ से जुडी है, पीने के लिए हम पानी, शरबत, शराब जैसी चीजों का इस्तेमाल करते हैं.
#नियमन
चन्द्रमा की दशा पर तिथियों का निर्धारण है. प्रतिपदा से अमावस्या या प्रतिपदा से पूर्णिमा. हैं न!
पूर्णिमा का मतलब उस रोज चन्द्रमा धरती के बहुत करीब होता है. अमावस्या मतलब चन्द्रमा धरती से ज्यादा दूर होता है. मनीषियों ने पाया कि इन दोनों ही अवस्था में मनुष्य का मन बेहद विचलित हुआ करता है, इसलिए इस समय पर स्निग्धता देने वाले चीजों के सेवन को वर्जित किया, जैसे अमावस्या-पूर्णिमा पर तेल, तिल या दही के इस्तेमाल से बचने की सलाह. मतलब कि पाचन में जो-जो भी चीजें भारी होती हैं, उसका सेवन नहीं करना चाहिए. मैं इस नियम को इस तरह समझ पाया, दरअसल, कृषि आधारित व्यवस्था में एकादशी, त्रयोदशी, चतुर्दशी और अमावस्या या पूर्णिमा पर परिश्रम क्रमशः शिथिल होता जाता था. भारतीय उपमहाद्वीप में कृषि पद्धति चन्द्र की स्थिति पर निर्धारित थी, इसीलिए एक मास / महीने के आठ रोज शिथिल घोषित किए गए थे, उन आठ दिनों में गरिष्ठ यानी पचाने में समय लेने वाले पदार्थों के सेवन को त्याज्य बताया गया. इधर के कुछ विद्वानों ने जब देखा कि तिथि के अनुसार खान-पान के निर्धारण को लेकर जब वे फंस रहे हैं तो उन्होंने उन आठ दिनों के साथ इतवार को भी जोड़ दिया. खैर, यह बात समझने वाले समझ ही जाएँगे.
बहरहाल! मैं जितना समझ पाया कि प्राचीन विद्वानों से लेकर वर्तमान आहार विशेषज्ञ सब जो कहना चाहते हैं वह यह है -
#जब भी खाली पेट ज्यादा समय तक रहें उसके बाद कभी भी बेलवर्गीय उपज जैसे कद्दू, लौकी, तुरई आदि न खाएं.
#बेलवर्गीय उपज जब भी खाएं तो उसके अगले रोज या उस रोज भी फल जरुर खाएं, ध्यान रखें कि फल मतलब फल. फल जब खाएं तो उसके अगले रोज बेलवर्गीय उपज नहीं बल्कि #फसलीय उपज जैसे बैंगन, भिन्डी आदि जरुर खाएं, फिर उसके अगले रोज बेलवर्गीय उपज. क्रम समझ लीजिए, बेलवर्गीय उपज, उसके अगले रोज केला आदि फल, फिर बैंगन, भिन्डी, परवल आदि सब्जी. इस क्रम को कभी नहीं बदलना चाहिए. किसी कारण से यदि यह क्रम चूक जाए या टूट जाए तो एक दिन का अन्तराल रखें और उस दिन ने बेलवर्गीय कुछ खाएं, न फल और न फसलीय कुछ. उस रोज प्याज-नमक से काम चलाएं.
एक बात और ख्याल रखें कि विद्वानों और आहार विशेषज्ञों की नजर में बेल और नारियल भी फल हैं.
#गरु_बनाम_पुष्टि
जब भी दही-घी आदि का सेवन करें उसके अगले रोज बेलवर्गीय कोई भी चीज न खाएं, बल्कि फल आदि खा सकते हैं. दही-घी के बाद कम से कम ३६ घंटे तक कद्दू, लौकी, मूली, गाजर, आलू, प्याज, लहसुन, अदरक के सेवन से बचना चाहिए. न तो दही के साथ यह सब खाना चाहिए और न ही खाने के कम से कम ३६ से ४८ घंटे बाद तक. फल के भरपूर सेवन के पश्चात भी एकदम से बेलवर्गीय चीजों पर नहीं जाना चाहिए, पहले फसलीय और फिर बेलवर्गीय, फिर फल, फिर फसलीय...
#ताड़वर्गीय
बेल, नारियल, ताड़ आदि फलों के सेवन लिए भी खास नियम हैं. जब भी इस वर्ग के फल खाएं कसैली चीजों का सेवन न करें, यानी बेल, नारियल आदि खाने के बाद कभी भी करेला, आंवला जैसे पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए. यही नहीं ताड़वर्गीय के साथ ताड़वर्गीय नहीं खाना चाहिए, मतलब नारियल के साथ बेल या बेल के साथ नारियल यानी आज नारियल खाए तो कल बेल नहीं खाना है या फिर आज बेल खाए तो कल नारियल नहीं.
#नींबूवर्गीय
संतरा, मोसंबी, नींबू सबकी एक ही प्रजाति है. नींबूवर्गीय के साथ कभी दही या तिल का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए. कई लोग दूध में नींबू डालकर उसे फाड़ते हैं और दही-पनीर आदि बनाते हैं. नींबू से फाड़े गए दूध से बनी दही-पनीर खाने से पित्त के साथ कफ भी इतना बढ़ जाता है शरीर में कि जिससे शरीर में पहले से रहने वाले कैंसर के जीवाणु बेहद संगठित तौर पर सक्रिय हो जाते हैं.
#अंतिमबात
चबाकर खाने वाली चीजों को खूब चबाकर मतलब प्रति कौर ३२ बार जरुर चबाना चाहिए. दिन में कम से कम चार बार जरुर कुछ न कुछ पाचक खाना या पीना ही चाहिए. दो बार के खाने के बीच छह घंटे से ज्यादा का अन्तराल नहीं होना चाहिए. कुछ और न खा पाए तो एक धेला गुड खाकर भरपेट पानी पी लेना चाहिए. यह जरुर ध्यान में रखिए कि कभी भी सिर्फ पानी नहीं पीना चाहिए, प्रत्येक बार पानी पीने के पहले मुँह में जरुर कुछ चबाकर खाना चाहिए.
पुष्पेन्द्र फाल्गुन फाल्गुन विश्व

खान-पान के अहम् फाल्गुन नियम

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