सोमवार, 12 दिसंबर 2011

सत्य तक पहुँचने-पहुँचाने का प्रयास है गीतांजलि


११ मई २०११ को नागपुर के दीनानाथ हाईस्कूल में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की १५० वीं जयंती के निमित्त युवा कवियों के विचार नामक कार्यक्रम आयोजित हुआ. इसमें श्री अरिंदम घोष, श्रीमती इला कुमार, श्रीमती अलका त्यागी, श्री अमित कल्ला के अलावा मैंने यानि पुष्पेन्द्र फाल्गुन ने भी अपने विचार रखे. मैंने वहाँ जो कहा, वह आपके पेशे-खिदमत है. पढ़कर कृपया अपनी राय से अवगत कराएं...

रवीन्द्रनाथ टैगोर की कालजयी काव्यकृति गीतांजलि को यदि मुझे एक वाक्य में अभिव्यक्त करना हो तो मैं कहूँगा, 'सत्य तक पहुँचने-पहुँचाने का प्रयास है गीतांजलि।' गुरुदेव रवीन्द्रनाथ के किसी कविता की ही पंक्तियां हैं;
सत्य ये कठिन
कठिनेरे भालोबासिलाम
से कखनो करे ना बंचना
(सत्य तो कठिन है, लेकिन इस कठिन से ही मैंने प्रेम किया, क्योंकि यह सत्य कभी वंचना नहीं करता।)

      गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का समूचा साहित्य फिर चाहे वह काव्य हो, नाटय हो, कथा-कादंबरी हो, हर कहीं सत्य ही उद्भाषित होता है, सत्य ही उद्धाटित होता है, सत्य की ही पक्षधरता है। गीतांजलि में सत्य की पक्षधरता के साथ-साथ सत्य प्राप्ति के उपाय सर्वाधिक प्रखर हैं। प्रखरता से यहाँ मेरा तात्पर्य स्पष्टता से है।

जैसा कि आप सभी विज्ञजन जानते ही हैं कि सार्थक साहित्य समस्याओं को उजागर करने के साथ उस पर विमर्श करता है और उस समस्या से निजात के उपाय बताता है। उपाय और उपदेश का फर्क ही साहित्य की कोटि निर्धारित करता है। गीतांजलि इसीलिए सर्वोच्च कोटि की साहित्यिक कृति है कि इसमें उपदेश नहीं है उपाय है; अहंकार से मुक्ति के उपाय क्योंकि अहंकार ही सत्य की राह में सबसे बड़ी बाधा है।

वह अहंकारी कौन है, कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ किस अहंकार की बात कर रहे हैं? उन्हीं की एक कविता की पंक्तियां हैं;
फूल फुटे, आमि आर देखिते न पाइ!
पाखि गाहे, मोर काछे गाहे ना से आर!
(फूल खिलते हैं, पक्षी गाते हैं, लेकिन हृदय अपने में ही इतना व्यस्त है कि वह यह सब देख-सुनकर भी अनदेखा-अनसुना करता है।)

और जब हृदय प्रकृति के सौंदर्य, उल्लास एवं अनुपमता की उपेक्षा करता है, तो वह भला उस सत्य को क्या देखेगा-समझेगा, जिसकी बात गुरुदेव रवीन्द्रनाथ कर रहे हैं! इसीलिए पूरी गीतांजलि में रवीन्द्रनाथ अहंकार के तिरोहण की बात करते हैं, लेकिन उपदेशात्मक लहजे में नहीं, बल्कि प्रार्थी भाव में। गीतांजलि की इस कविता में कवि अपने अहंकार के नाश की बात करते हैं। कवि कहते हैं;
मेरा मस्तक अपनी चरण-धूलि तल में झुका दे!
प्रभु! मेरे समस्त अहंकार को ऑंखों के पानी में डुबा दे!
अपने झूठे महत्व की रक्षा करते हुए मैं केवल अपनी लघुता दिखाता हूँ
अपने ही को घेर मैं घूमता-घूमता प्रतिपल मरता हूँ
प्रभु! मेरे समस्त अहंकार को ऑंखों के पानी में डुबा दे!
मात्र अपने निजी कार्यों से ही मैं खुद को प्रचारित न करूं
तू अपनी इच्छा मेरे जीवन के माध्यम से पूरी कर
मैं तुझसे चरम शांति की भीख मांगता हूँ
प्राणों में तेरी परम कांति मांगता हूँ
मुझे ओट देता मेरे हृदय कमल में तू खड़ा रह
प्रभु! मेरे समस्त अहंकार को ऑंखों के पानी में डुबा दे!

        गीतांजलि में इसी तरह की कविताएं हैं। अहंकार से मुक्ति की कामना। अहंकार से मुक्ति की याचना। अहंकार से मुक्ति की प्रार्थना। क्योंकि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ मानते हैं कि अहंकार ही असल में तमाम समस्याओं की जड़ है। फिर चाहे वह समस्याएं व्यक्ति की अंतर्गत समस्याएं हों कि सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक।

      लेकिन गुरुदेव जानते हैं कि अहंकार से मुक्ति इतनी सहज नहीं है, इसीलिए गीतांजलि में वे अहंकार से मुक्त होने की कामना रखने वालों के लिए एक हिदायत भी लिए चलते हैं और वह हिदायत है कि बिचौलियों से सावधान। बिचौलिए मतलब पंडे-पुरोहित। धर्म के बिचौलिए। गीतांजलि की ही यह कविता देखिए;
उसने तेरी नाव तक पहुँचने से पूर्व, राह में ही मुझे पकड़कर
मुझसे पूरी कीमत वसूल कर ली
घाट पर पहुँचा तो देखता हूँ कि नदी पार जाने के लिए मेरे पास एक कौड़ी भी शेष नहीं है
तेरे ही काम के बहाने उसने मुझे बुलाया और रास्ते में ही तन-मन-धन नष्ट कर दिया
और जो थोड़ा-बहुत मेरे पास था, उसका अपहरण कर लिया
आज जब मैंने उन बहुरूपी वंचकों को पहचान लिया
उन्होंने भी मुझे शषक्तहीन जान लिया
भय और लज्जा से उनकी ऑंखे झुकी हुई नहीं थी
आज वे सिर ऊँचा उठाकर गर्व से रास्ता रोके खड़े थे।

       तो बिचौलिए, धर्म के बिचौलिए अहंकार मुक्ति की आपकी कामना को ताड़ जाएंगे और आपकी इस कामना को आपकी कमजोरी बना देंगे। इसलिए धर्म के मार्ग से अहंकार मुक्ति का उपाय आपको नहीं अपनाना है। तो फिर किस तरह? रवीन्द्रनाथ गीतांजलि में इस सवाल का भी जवाब देते हैं। अहंकार की मुक्ति के लिए रवीन्द्रनाथ अनुभूति का मार्ग अख्तियार करने की सूचना देते हैं। कैसी अनुभूति? प्रेम की अनुभूति। जब प्रेम की अनुभूति होती है, तो हृदय आनंद से लबालब हो उठता है। सब तरफ उपस्थित और व्याप्त सौंदर्य हमारा ध्यान खींचते हैं। गीतांजलि की यह कविता देखिए;
आकाश में आलोक कमल खिला है
उसकी पंखुड़ियाँ खिल-खिल कर सब दिशाओं में बिखर गई हैं
उससे ढंक गया अहंकार का गहरा काला पानी
पुष्प के मध्य भाग में स्वर्ण का कोष है
मैं वहाँ आनंद से बैठा हूँ और मुझे घेरकर आलोक शतदल धीरे-धीरे विकसित हो रहा है
आकाश में पवन की तरंगे उठी हैं, चारों ओर से गीतों की लहरें उमड़ रही हैं
प्राण चतुर्दिक दौड़ रहा है, नृत्य कर रहा है, थिरक उठा है।
गगन पूरित आलोक सबको स्पर्श कर रहा है
इस प्राण सागर में गोता लगाकर उसे अपने वक्ष में भर रहा हूँ मैं
घूम-घूम के हवा मुझे घेर बह जाती है
आंचल पसार पृथ्वी भी दसों दिशाओं से प्राण संचित कर अपने हृदय में पूर रही है
जहाँ-जहाँ भी प्राणधारी जीव रहते हैं, सबको उसने पुकारा है
सबके हाथों में, पात्रों में अन्न बांट दिया है
मेरा मन भी गीत और गंध से भर गया
मैं अतीव आनंद से स्वर्ण कोष में बैठा हूँ
पृथ्वी ने मुझे अपने आंचल से घेर लिया है और अपने हृदय में बिठाया है
प्रकाश! मैं तुझे नमस्कार करता हूँ, मेरा अपराध नष्ट कर
मेरे माथे पर पिता का वरद हाथ रख
पवन! मैं तुझे नमस्कार करता हूँ, मेरा विषाद नष्ट कर
मेरे समस्त शरीर पर फैला दे पिता का आर्शीवाद
भू-माता मैं तुझे नमस्कार करता हूँ, मेरे समस्त मनोरथ पूर्ण कर
घर-घर में भर जाए पिता का आर्शीवाद।

         तो प्रेम की अनुभूति हमारे हृदय को सदभावना से भर देती है। लेकिन इसी समय, इसी अनुभूति के साथ हमारे भीतर उतरता है भय। कैसा भय? अहंकार छूट रहा है। चूर-चूर हो नष्ट हो रहा है। लेकिन उसका हमारे हृदय में इतने लंबे समय तक निवास रहा है, भला वह आसानी से छोड़ेगा हमे? हम तो अब उसे छोड़ना चाहते हैं, लेकिन क्या वह आसानी से छोड़ेगा हमें? नहीं, वह हमें डराएगा। लेकिन हमें डरना नहीं। प्रेम की अनुभूति से जो उदात्त जीवन की गंध हमें मिली है। हमें उस पर ही ध्यान लगाए रखना है। हमें लड़ना नहीं है अपने अहंकार से। क्योंकि जब हम लड़ने लगते हैं, तो जीत के उन्माद की आशंका या फिर हारने का भय हमें लगातार कमजोर बनाए रहता है। इसीलिए हमें प्रेम का रास्ता अपनाना है। प्रेम का हाथ यदि हम थामे रहेंगे तो अहंकार अपने आप तिरोहित होकर समाप्त हो जाएगा। यदि अहंकार के जाने का भय हो तो ईश्वर पर आस्था रखने से अहंकार से मुक्ति का मार्ग सुगम होगा। फिर जब हम अहंकार मुक्त हो जाएं और प्रेम से हमारा रोम-रोम पग जाए तो हमें क्या करना चाहिए? रवीन्द्रनाथ गीतांजलि के पाठकों को अधर में नहीं छोड़ते। ऐसा नहीं कि आप अहंकार से मुक्त हो गए। प्रेम की शाश्वत अनुभूतियों से तर हो गए तो काम खत्म हो गया। नहीं। रवीन्द्रनाथ जानते थे कि असल दिक्कत तो यहीं से शुरु होती है। प्रेम पगा मनुष्य असल में भक्ति में डूबने लगता है। उसे लगता है कि भक्ति ही सबकुछ है; लेकिन रवीन्द्रनाथ प्रेम में डूबे मनुष्य को सचेत करते हैं, उसे चैतन्य बनाते हैं, उसे ताकीद करते है कि सत्य की तरफ बढ़ो, सत्य प्राप्त करो और वह सत्य क्या है?
गीतांजलि की यह कविता देखिए;
पुजारी, भजन, पूजन, साधन, आराधना
इस सबको किनारे रख दे
द्वार बंद करके देवालय के कोने में क्यों बैठा है?
अपने मन के अंधकार में छिपा बैठा, तू कौन सी पूजा में मग्न है?
आँखें खोलकर जरा देख तो सही, तेरा देवता देवालय में नहीं है
जहाँ कठोर जमीन को नरम करके किसान खेती कर रहे हैं
जहाँ मजदूर पत्थर फोड़कर रास्ता तैयार कर रहे हैं।
तेरा देवता वहीं चला गया है
वे धूप-बरसात में सदा एक समान झुलसते हैं,
उनके दोनों हाथ मिट्टी में सने हैं
अपने सुंदर परिधान त्यागकर उनकी तरह मिट्टी भरे रास्तों से जा
तेरा देवता देवालय में नहीं है
भजन, पूजन, साधन को किनारे रख दे
मुक्ति? अरे मुक्ति कहां है
कहां मिलेगी मुक्ति
अपने सृष्टि बंध से प्रभु स्वयं बधे हैं
ध्यान पूजा को किनारे रख दे
फूल की डाली को छोड़ दे। वस्त्रों को फटने दे, धूल धुसरित होने दे
उनके साथ काम करते हुए पसीना बहने दे

       पूरी गीतांजलि का सार यही है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ पूरी गीतांजलि में अहंकार से मुक्ति की कामना करते हैं और फिर यह जान लेते हैं कि असल मुक्ति श्रम में है, लेकिन श्रम, बिना प्रेम के अधूरा है। इसीलिए वे इंसान को पहले अहंकार से मुक्त होने, प्रेममय होने और फिर श्रम के लिए प्रेरित करते हैं। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि इस पूरी प्रक्रिया के लिए वे ईश्वर को साधन बनाते हैं, साध्य नहीं। प्रेमिल हृदय के श्रम से ही मनुष्य असल में समाज में अपनी उपयोगिता और कर्मठता सिद्ध करता है। यही श्रम की महत्ता है और यही प्रेम की भी महत्ता है। कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ गीतांजलि में इस महत्व को पूरी सफलता से सर्जित कर जाते हैं।

        मजेदार बात यह है कि जिस समय रवीन्द्रनाथ गीतांजलि के जरिए समूची दुनिया के समक्ष श्रम की महत्ता प्रतिपादित कर रहे थे। उस समय दुनिया में परस्पर एक-दूसरे पर वर्चस्व की होड़ मची हुई थी। यह बीसवीं शताब्दी के आरंभ का समय था। इंग्लैण्ड, फ्रांस, इटली, जर्मनी, रूस, जैसे देश अपने वर्चस्व को स्थापित करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार थे।

       जिस समय रवीन्द्रनाथ ने बांग्ला गीतांजलि से 51, गीतिमाल्य से 17, नैवेद्य से 16, खेया से 11, शिशु से 3 तथा चैतालि, स्मरण, कल्पना, उत्सर्ग और अचलायतन नामक अपने बांग्ला काव्य संकलनों से एक-एक कविताएं लेकर उन्हें अंगरेजी में अनूदित कर अंगरेजी गीतांजलि की रचना की, उस समय विश्व पटल पर प्रथम विश्व-युद्ध दस्तक दे रहा था। इंग्लैण्ड के तमाम साहित्यकार विश्व-युद्ध की दस्तक सुन रहे थे और 1912 में जब रवीन्द्रनाथ अंगरेजी गीतांजलि के साथ लंदन पहुँचते हैं, तो मानों अंगरेजी के इन मशहूर साहित्यकारों को इस संकट से निपटने की कोई कुंजी मिल जाती है। गीतांजलि में जिस तरह से कवीन्द्र रवीन्द्र आध्यात्मिकता के ताने-बाने में श्रम को मूल्यांकित करते है, वह विश्व भर के प्रमुख साहित्य साधकों को न सिर्फ चौंकाता है, उन्हें गहरे तक प्रभावित भी करता है।

      लंदन में रहनेवाले मशहूर चित्रकार, साहित्य मर्मज्ञ और विचारक विलियम रोदेन्स्टाइन, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की रचनाओं से सबसे पहले मुत्तासिर होते हैं। उन्होंने अंगरेजी पत्रिका 'मॉडर्न रिव्यू' में भगिनी निवेदिता द्वारा अंगरेजी में अनूदित काबुलीवाला कहानी पढ़ी थी और इसके शिल्प, कथ्यादि के चमत्कार से वह इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने शांतिनिकेतन पत्र भेजकर यह पूछा कि क्या रवीन्द्रनाथ की इस तरह की और दस कहानियां हैं? जवाब में शांतिनिकेतन के शिक्षक अजीतकुमार चक्रवर्ती ने रोदेन्स्टाइन को रवीन्द्रनाथ की अंगरेजी में अनुवादित कुछ कविताएं भेज दी।

       बाद में जब रवीन्द्रनाथ लंदन पहुँचे और उन्हें जो घर किराए पर मिला वह रोदेन्स्टाइन के घर के समीप था। रोदेन्स्टाइन ने ही अंगरेजी गीतांजलि की पांडुलिपि बै्रडले, स्टापफोर्ड ए. क्रुक एवं डब्ल्यू. बी. येट्स के पास अभिमत जानने के अभिप्राय से प्रेषित की। सभी गीतांजलि की सहजता और बोधगम्यता से चकित थे। रोदेन्स्टाइन के माध्यम से ही रवीन्द्रनाथ का परिचय एच.जी. वेल्स, ब्रटेड रसेल, लूइस डिकिंसन से हुआ था। रोदेन्स्टाइन ने ही अपने निवास पर 30 जून 1912 को एक गोष्ठी आयोजित की जिसमें येट्स, मेस्फील्ड, एमालिन अंडरहिल, एजरा पाउंड, मिस सिंकलेयर, ऑर्नेस्ट रीज, राबर्ट ट्रेवलिन, इत्यादि प्रमुख साहित्यिक-विचारक शामिल हुए। इसी गोष्ठी में पहली बार येट्स ने गीतांजलि की कुछ कविताएं सुनाई। 10 जुलाई 1912 को लंदन के ट्रकेडारो होटल में रवीन्द्रनाथ टैगोर के अंभिनंदनार्थ एक सभा आयोजित हुई। इस सभा में भी रवीन्द्रनाथ की कविताओं का पाठ येट्स ने किया। अब तक रवीन्द्रनाथ लंदन में प्रसिध्दि पा चुके थे। कई पत्र-पत्रिकाओं ने उन पर लेखादि प्रकाशित किए। 1912 के अगस्त के अंत में गीतांजलि का अंगरेजी अनुवाद इंडिया सोसाइटी नामक संस्था ने मुद्रित कर प्रकाशित किया और अपने सदस्यों में उसे प्रसारित किया। 1912 के नवंबर में अंगरेजी गीतांजलि का समग्र प्रकाशन हुआ। इसकी भूमिका येट्स ने लिखी थी और आवरण पर रोदेन्स्टाइन द्वारा रवीन्द्रनाथ का बनाया हुआ चित्र था।
      अंगरेजी गीतांजलि रोदेन्स्टाइन को समर्पित है। 

      बाद में मैकमिलन एंड कंपनी नामक प्रकाशन संस्थान ने मार्च 1913 में इस प्रकाशित कर दुनिया के सम्मुख प्रस्तुत किया। हालांकि तब तक गीतांजलि की कविताएं पश्चिम की कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी थी। शिकागो से प्रकाशित होनेवाली पत्रिका 'पोएट्री' ने भी गीतांजलि की छहः कविताएं दिसंबर 1912 में प्रकाशित की।

      मैकमिलन एंड कंपनी द्वारा प्रकाशित गीतांजलि की सारी प्रतियां एक महीने में ही बिक गई थी। 1913 की सितंबर में गीतांजलि को नोबेल पुरस्कार देने की घोषणा हुई। उसके बाद करीब आठ-नौ साल तक गीतांजलि अंगरेजी में सबसे ज्यादा बिकने वाली पुस्तकों में शामिल रही।

      पश्चिम में गीतांजलि को हाथों-हाथ लेने की वजह वहाँ का वातावरण था। लगभग सभी पश्चिमी देश संक्रमण की अवस्था से गुजर रहे थे। एक तरफ औद्योगिकीकरण के चलते बेरोजगारी और बाजार का संकट था, तिस पर इन संकटों को झेलते वहाँ के सामाजिक और राजनीतिक जीवन पर पड़ने वाला प्रभाव। उस समय के बुद्धिजीवियों को यह एहसास था कि यदि गीतांजलि का समुचित तरीके से पाठ वहाँ की जनता के बीच हो तो बहुत हद तक तत्कालिक कुप्रभावों को टाला जा सकता है अथवा उससे बचा जा सकता है, दुर्भाग्य से गीतांजलि को नोबेल मिलने के बाद इस तरह की कोशिशों पर विराम लग गया। वहाँ पश्चिम में भी। यहाँ भारत में भी।

-पुष्पेन्द्र फाल्गुन 

मंगलवार, 22 नवंबर 2011

अंतस-पतंगें


आप लोगों की नजर एक कविता, शीर्षक है 'अंतस-पतंगें'



परत-दर-परत
उघारता हूँ अंतस
उधेड़बुन के हर अंतराल पर
फुर्र से उड़ पड़ती है एक पतंग 
अवकाश के बेरंग आकाश में.

पतंगों के
धाराप्रवाह उड़ानों से उत्साहित
टटोलता हूँ अपना मर्म मानस
पाता हूँ वहाँ अटकी पड़ी असंख्य पतंगें
कहीं गुच्छ-गुच्छ
कहीं इक्का-दुक्का.

अंतस की काई में
उँगलियाँ उजास का जरिया बनती हैं
अंगुल भर उजास
भड़भड़ा देता है अस्तित्व
पतंगें
घोषित कर देती हैं बगावत
स्पर्श ने
पिघला दी समय की बर्फ
जगा दी मुक्ति की अपरिहार्य आकांक्षा. 

पतंगों की समवेत अभिलाषा
अंतस में पैदा करती है प्रसव-वेदना
एक-एक कर
कोख से उन्मुक्त हो पतंगें
नापने लगती हैं आसमान
लाख प्रयास भी
नहीं काट पाती है
किसी भी पतंग की गर्भनाल.

गर्भनाल ही बनती जाती है डोर
अंतस रूपांतरित होने लगता है
एक महाकाय चकरी में
जिसमे लिपटी डोर
साहूकारी ब्याज सी अनंतता का अभिशाप लिए
गूंथती रहती है
देह-संस्कार.

हवाबद्ध हर पतंग के 
निजी इतिहास और संस्कृति की पनाहगाह
अंतस
सौन्दर्यबोध की उत्कंठा में उदास
तलाश रही है वह कैनवास
कि जिसके आगोश में
पतंगे
तय कर सकें अपनी मंजिल
उन्मुक्त और निर्भय. 

गुरुवार, 20 अक्तूबर 2011

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पुष्पेन्द्र फाल्गुन
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सोमवार, 10 अक्तूबर 2011

प्रवाह



जैसे दो किनारों के सहारे आगे बढ़ती है नदी 
किनारे न हों तो भटक जाएगी नदी
किनारे नदी के भटकाव को रोकते हैं
और रखते हैं प्रवाहमान उसे

किनारे न हों तो दूर तक कहीं फ़ैल कर नदी ठहर जायेगी...

स्वाभाविक तरीके से गतिमान रहना है तो दो की जरूरत अपरिहार्य है
दो पैर हों तो चाल स्वाभाविक होगी
दो हाथ हों तो उलट-पलट आसान होगी 

उलट-पलट से एक किस्सा याद आया

कोई दस बरस पहले की बात है
मैं एक पारिवारिक शादी में शरीक होने ननिहाल गया था.
वहाँ जो खानसामा थे, उनसे मेरी दोस्ती हो गई.
मैं उनसे अलग-अलग व्यंजन बनाना सीखता...

एक शाम बड़े से चूल्हे पर एक बड़े कड़ाह में वे आलू और कद्दू के सब्जी बना रहा थे
उनके दोनों हाथ में सब्जी चलाने के लिए औज़ार थे...
मैंने उनसे पूछा, 'सब्जी चलाने के लिए दो-दो औज़ार क्यों...'
वे हँसते हुए बोले, 'एक उलटने के लिए एक पलटने के लिए...'
मैंने पूछा, 'उलटने-पलटने!! मतलब?'

मेरे गालों को छूकर उन्होंने कहा, 'जिस दिन उलटने-पलटने की उपयोगिता समझ जाओगे, अपने साथ-साथ औरों का जीवन भी  आसान बना दोगे...' 

रविवार, 9 अक्तूबर 2011

फर्क



"क्या आपको सचमुच फर्क नहीं पड़ता!!" मैंने हैरत से उस बुजुर्ग फ़कीर से पूछा था.
लगभग हँसते हुए लेकिन अत्यंत दृढ़ स्वर में उन्होंने कहा था, "नहीं."

मेरे रुआंसे चेहरे को देखकर उन्हें फिर हंसी आ रही थी. लेकिन उन्होंने हंसी को ज़ब्त करने का अभिनय किया.
मैंने लम्बी सांस खींचकर उनसे पूछा, "तो फिर किस बात से फर्क पड़ता है?"

चमकती आँखों और मुस्कुराते होठों के मालिक उस फकीर ने कहा, "इससे किसी को फर्क नहीं पड़ता कि आप आस्तिक हैं या नास्तिक, आप आत्मा और परमात्मा को मानते हैं या नहीं, आप कर्मकांडी हैं या नहीं, आप साम्यवादी  हैं या नहीं, फर्क इस बात से पड़ता है कि आपका चित्त निर्मल है या नहीं. यदि आपके आस्तिक अथवा नास्तिक होने से आपका चित्त निर्मल हो जाता हो तो आप शौक से आस्तिकता अथवा नास्तिकता का ढोल बजाइए. लेकिन यदि आपका चित्त निर्मल नहीं हैं तो फिर किसी को इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि आप आस्तिक हैं या नास्तिक, साम्यवादी हैं या भाग्यवादी, कर्मकांडी हैं या कर्मवादी..."

वह बूढ़ा फ़कीर अपनी बात खत्मकर कब का जा चुका था और मैं अपनी हैरत को संभालने के तरीके ढूँढने में मशगूल था....

गुरुवार, 30 जून 2011

स्कूल जाने के पहले एक बच्ची की प्रार्थना


"हे भगवान्, अब आप हमारे क्लास के बच्चों के गाल और हाथ की रक्षा करना. कल टीचर को नया डस्टर मिल गया है, इस साल का डस्टर बड़ा मज़बूत और मोटा है और टीचर का निशाना भी एक दम पक्का है. अपनी सीट से बैठे-बैठे ही वे किसी का भी गाल लाल कर सकती हैं. कुछ ऐसा करो भगवान् कि टीचर से ये डस्टर गुम जाए. या फिर ऐसा करो कि टीचर को लकड़ी मिल जाए, कम से कम लकड़ी कि मार सही जा सकती है क्योंकि हमें उसके बारे में मालूम होता है. लेकिन ये टीचर तो जुबान पर लकड़ी से मारती है. एक काम करो भगवान् टीचर ही बदल दो..., हाँ भगवानजी, ये टीचर हटाकर कोई ऐसी टीचर हमें दो, जो हमसे प्यार से बातें करे, हमें प्यार से हर बात, हर सबक समझाए और पूछने पर मारे नहीं बताये, समझाए वो भी प्यार से, बिलकुल हमारी मम्मी की तरह..., आप सुन रहे हो न भगवानजी.."

मंगलवार, 28 जून 2011

बापू का चश्मा



सेवाग्राम आश्रम से बापू का चश्मा क्या चोरी हुआ, हाय तौबा मचाने वालों की तो निकल पड़ी. किसी ने सेवाग्राम आश्रम समिति को जमकर कोसा कि उन लोगों ने आखिर इतने महीनों तक चश्मे की चोरी छिपाए क्यों रखी? तो किसी ने पुलिस विभाग को कोसा कि अभी तक चश्मे का कोई सुराग नहीं लग सका. 
लेकिन कोई भी उस चोर के बारे में क्यों नहीं सोचता!
वह बेचारा तो बापू का चश्मा चुरा कर कितना पछता रहा होगा?
क्योंकि न तो वह उसे पहन सकता है, न बेच सकता है!!
पहनेगा तो बापू की नज़र से दुनिया देखनी पड़ेगी!!
और बेचेगा तो एक ऐसी चोरी के लिए पकड़ा जाएगा, जिसकी लिए न जाने के लिए कितने लोग उसे दुआएं दे रहे होंगे कि अच्छा हुआ बापू का चश्मा गया, आज नज़र गई है... कल नजरिया भी चला ही जाएगा...
अब यदि चोर पकड़ा गया तो बापू के नज़रिए के जाने की आस लगाए बैठे तमाम लोगों की बद्दुआएं उसकी झोली में!!
मुझे तुमसे सहानुभूति है चोर जी...

सोमवार, 27 जून 2011

काका का एल्बम

कल इसी कविता को किसी और तरीके से लिखा था. आज  'कविता लेखन' पर अग्रज कवि-आलोचक नन्द भारद्वाज जी के मार्गदर्शन के बाद कल की कविता 'जय भीम कावडे काका, जय भीम' को कुछ इस तरह लिखा है. आप सुधीजनों से  तवज्जों चाहता हूँ ...



तनि-तनि से पंख हैं उस सफ़ेद तितली के
जिन्हें मासूमियत से हिलाकर प्रदर्शित करती है वह अपना प्रेम
हालांकि सैकड़ों पैरों वाला वह जंतु उसे कतई नहीं पसंद 
लेकिन क्या करे काका के एल्बम में उसके लिए जगह ही यहाँ थी

काका के एल्बम में
नाचते हैं मयूर
गूंजते हैं भौरे
सहमकर टंगा पड़ा है एक सफ़ेद उल्लू 
और माजरे को समझने की कोशिश करता एक हिरन शावक इधर ही देखर रहा है

कुछ फूल और पत्तियों 
और किस्म-किस्म की औषधियों की गुफ्तगूँ 
आपको सुननी ही पड़ेगी साहेबान यदि आप देखेंगे काका का एल्बम तो

काका के एल्बम में सबकुछ अच्छा-अच्छा और सुन्दर नहीं है
कुछ बदसूरत और वीभत्स चेहरे भी देखने पड़ेंगे आपको
ये उन चेहरों के अंतिम अवशेष हैं
जिन्हें कुचलकर भाग गए हैं बस-ट्रक जैसे अति भारी वाहन
या कर-जीप जैसे कम वजनी वाहन 
या फिर मोटर साइकल या स्कूटर जैसे हल्की गाड़ियाँ  

इन चेहरों की पहचान बनाए रखने की ठोस वजह है काका के पास
उस वजह को आप देख पायेंगे उनकी आँखों में जब वे लम्बी-लम्बी उसाँसे भर
एल्बम के एक-एक पन्ने को इस तरह पलट रहे होंगे
जैसे कोई पलटता है जिंदगी की किताब पृष्ठ दर पृष्ठ

काका के एल्बम में खुशियों में भींगी आँखें
और मौत के मुंह से लौटकर आने पर किया जाने वाला 
कसावट और तरावट भरा जोरदार आलिंगन भी है
काका के एल्बम के इस हिस्से का हर क्षण 
उनके अनुभवों और कहानियों से उसी तरह जीवंत है
जैसे दो साल के बच्चे की तुतलाती बोली से जीवंत होती है जिंदगी

काका को पसंद नहीं है
किसी का डूब जाना
फिर वह डूबना
रेत घाट में ठेकेदारों द्वारा
नियमों को धता बताकर किये गए २०-२० फुट के गड्ढे में किसी नौजवान का डूबना हो
कि किसी मवाली की अश्लील टिप्पणियों से शर्म से फिसलती किसी स्त्री का डूबना हो
काका किसी को डूबने नहीं देते
घर से लाई गई रस्सी के सहारे वह बचाते हैं नदी और गड्ढे में डूबने वालों को
नीयत से लाई गई हिम्मत के सहारे वह बचाते हैं नारियों के स्वाभिमान
और उनके भीतर टूटते समाज और सदाचार को

काका के एल्बम में नहीं है उनकी रस्सी और नीयत का एक भी चित्र

नहीं है
'जय भीम कावडे काका, जय भीम' की अनुगूंज
जिसे सुना जा सकता है सिर्फ तभी
जब आप हों काका के साथ पल-दो पल ही सही

काका के एल्बम में नहीं है
वह धूप और छाँह
जिसे भोगा है उन्होंने अविरत ५६ साल
उस बहन की वेदना और ममता भी नहीं
जिसने अपने छोटे भाई-बहनों के लिए नहीं सजाई अपनी मांग
लौटा दिए अपने सपनों को बैरंग

काका के एल्बम में नहीं हैं
वे आशीष और दुआएं
जो बटोरी है उन्होंने हर शै-हर दिन
वे अफ़सोस भी नदारद हैं काका के एल्बम से
जिन्हें पिया है काका ने कई-कई लोगों के आंसुओं के साथ

काका के एल्बम में नहीं हैं मैं और आप

रविवार, 26 जून 2011

जय भीम कावडे काका, जय भीम


गाड़ेघाट* के मुहाने पर
आपको देख विस्मित होती आँखें
आत्मीयता से भर उठेंगी
जैसे ही आप उनसे कावडे काका के घर का पता पूछेंगे

यों गाड़ेघाट पूरे नागपुर जिले में 'अम्मा की दरगाह' के लिए मशहूर है
लेकिन इधर कावडे काका की वजह से इस गाँव का नाम
कई लोगों के लिए आदरणीय हो गया है

५६ साल पुरानी देह में रहते हैं कावडे काका
लेकिन उनके उत्साह और बुद्धि और मेधा और हिम्मत का 
उनकी देह से कोई जोड़ बैठ ही नहीं पाया अब तक
इसलिए आप देखते ही कहेंगे
काका आप तो ३८-४० से ज्यादा के नहीं लगते

गाड़ेघाट अम्मा की दरगाह और कावडे काका के अलावा भी
कुछ अन्य वजहों से जाना जाता है इस हल्क़े** में
जैसे यहाँ के रेती घाट
ठेकेदार यहाँ से रेती निकालते समय
इतने तल्लीन हो जाते हैं
कि हर साल चार फुट की तय जगह
की बजाय १२-१५-१८-२० फुट तक खोह करते हैं
और आराम से रेती ले जाकर पैसा कमाते हैं
रायल्टी चार फुट की, बाकी का 'माल' अपने बाप का
ठेकेदारों की इस प्रवृति को
तहसीलदार और कलेक्टर की स्थायी हरी झंडी मिली हुई है

ठेकेदार की करतूतों की सजा भुगतती है नदी
कन्हान नदी कि जिसके किनारे बसा है गाड़ेघाट
और इसी गाड़ेघाट में है अम्मा की दरगाह और कावडे काका का घर

जो लोग दरगाह में आते हैं
वे कन्हान नदी में जरूर नहाते हैं
और नहाते समय यदि वे उन गड्ढों में चले गए
जिसे ठेकेदार ने हराम की कमाई के लिए खोद रखा है 
तो उन्हें बचाने फिर अम्मा जी कि दुआ नहीं
कावडे काका की हिम्मत काम आती है

कावडे काका ने
सैकड़ों लोगों को डूबने से बचाया है
उन्हें भी जो माहिर तैराक थे
उन्हें भी जिन्हें पानी लगता था
कि नदी में नहाने के लिए तैरना आना जरूरी नहीं

अभी हाल ही 
किसी की शिकायत पर
ठेकेदारों की धांधली की जांच करने आये तहसीलदार की आँख के सामने
डूबने लगे दो जायरीन अम्मा की दरगाह के सामने
बचाओ-बचाओ की आर्त पुकार ने तहसीलदार के होश फाक्ता कर दिए
उन गड्ढों में यदि वे दोनों जायरीन डूब जाते
तो तहसीलदार के नौकरी और इज्ज़त का डूबना भी तय था
तभी किसी ने तहसीलदार को कावडे काका के बारे में बताया
तहसीलदार ने काका को बुला लाने का हुक्म जारी किया
तो किसी ने तहसीलदार को बताया कि
काका तो उन दोनों डूबने वालों को बचाने की कवायद में जुटे हुए हैं

एक मल्लाह उस गड्ढे में उतर कर
उलटे पैर ही लौट आया था ऊपर
काका ने उसे डांट कर घर भगाया
और घर से
साथ लाई गई रस्सी के सहारे
दोनों बच्चों को
उस २० फुट गड्ढे से
सकुशल बाहर निकाला

दोनों बच्चों को जीवित देख
तहसीलदार को अपना रुतबा याद आया
दोनों बच्चों के डपटते हुए
उसने पूछा कि घर से अम्मा की दरगाह के लिए आते हो कि नदी में नहाने
जवाब में कावडे काका ने तहसीलदार से पूछ लिया कि साहब
आप ठेकेदारों को चार फुट की बजाय
बीस फुट का गड्ढा करने की इजाज़त क्यों देते हो?
तहसीलदार ने झट
कावडे काका को गले लगाते हुए
कहा, 'यार तुमने मेरी नौकरी बचा ली'

कावडे काका के एल्बम में कैद हैं
न जाने कितने ही ऐसे किस्से
और उनकी चश्मदीद तस्वीरें

एल्बम में ही कैद हैं कुछ अफ़सोस भी कि
जिन्हें काका गाहे-बगाहे याद करते रहते हैं
और अपनी मुट्ठियाँ भींचते रहते हैं
ये उन लोगों की तस्वीरें हैं
कि जिन्हें काका नहीं बचा पाए डूबने से
अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद

कावडे काका के एल्बम में
वे चेहरे भी हैं
जो सड़क दुर्घटनाओं में
वीभत्स होकर अपनी पहचान को चुके हैं
लेकिन जी रहें हैं अपनी जिंदगी
कावडे काका की मुस्तैदी की बदौलत 

लेकिन इसके पहले कि लम्बी उसांस के साथ
आप कोई निराशाजनक बयान जारी करने का मन बनाएं
कावडे काका आपके सामने खोल देंगे वह एल्बम
जिसमे मुस्कुरा रहे होंगे किसिम-किसिम के फूल
तरह-तरह के जंतु
भांति-भांति के पक्षी
कुछ दुर्लभ- कई सुलभ
सफ़ेद तितली और उल्लू भी

कावडे काका के पास अखबारों की कतरनों
और तस्वीरों की भरमार है 
कि जिसमे उनके हिम्मत की चर्चा और प्रशस्तियाँ हैं
लेकिन काका आपको यह सब दिखाते हुए
बहुत खुश नहीं होते

बहुत धीरे से बोलते हुए
बताते हैं काका अपने अविवाहित रहने की वजह
और अपनी बड़ी बहन के भी अविवाहित रह जाने का कारण
दोनों ने
अपने से छोटे भाई-बहनों के लिए
जीवन भर खटने का निश्चय किया था
दोनों आज
इस बात से खुश हैं
कि सभी छोटे भाई-बहन अपने-अपने रास्ते पर हैं

काका ने ४० भैंस और २० गाय पाल रखी है
काका ने अपने दम पर खरीदी है पचासों एकड़ जमीन
लेकिन ख़ुशी काका के चेहरे से गायब है

कावडे काका ने सैकड़ों लोगों को जीवन-दान दिया
सैकड़ों परिवारों को बेसहारा होने से बचाया
काका ने डूबने से बचाते वक़्त और बचाने के बाद भी
कभी नहीं पूछा किसी से उसका नाम-और जाति

लेकिन बचने वाले और उसके परिवारजन
कभी नहीं भूलते
पूछना काका का नाम और उनकी जाति
और जाति जानने के बाद यह कहना भी नहीं भूलते
कि अभी मौत नहीं लिखी थे हमारे ....

काका बताएँगे कि
उन पर जो ज्यादातर मुक़दमे चल रहे हैं
वे उन ज्यादतियों की खिलाफत का नतीजा हैं
जो उन्होंने ब्राह्मणों और उच्च जातियों की लड़कियों से
उनके ही लोगों द्वारा किये जाने पर जताया था और लड़कियों को बचाया था

लेकिन रसूखदारों ने उलटे उनपर ही मुक़दमे चपेटे थे
जिन लड़कियों की आबरू बचाई थी उन्होंने
उनके परिजन कहते
कि हमने तो नहीं कहा था कि हमारी बच्ची की आबरू बचाओ

आज भी
औसतन
दो जान
रोज बचाते हैं कावडे काका
लेकिन अब आबरू का टोटका वे कतई नहीं मानते

अब काका
तितलियों
मोरों
भौरों
पक्षियों
जंतुओं
उल्लुओं
और जानवारों की जान बचाने को
ज्यादा तवज्जो देते हैं
कहते हैं कि इधर जाति के नाम पर
लगातार क्या एकाध बार भी
अपमानित होने का कोई खतरा नहीं है बाबा!

मेरे जैसे लोग
कावडे काका के इस जज्बे पर 
सजदा करते हुए कह ही उठते हैं
जय भीम कावडे काका, जय भीम 

* नागपुर जिले का छोटा सा गाँव
** इलाका  

गुरुवार, 23 जून 2011

इन कविताओं को पढ़ा जाए...

१९९५ की सर्दियों की एक सुबह ननिहाल में बैठे-बैठे 'फूट' पड़ीं ये कविताएं. आकार में ये कविताएं अत्यंत छोटी हैं, लेकिन एक ही 'मूड' में लिखी गईं हैं. ये सभी कविताएं 'सो जाओ रात' संग्रह में संकलित हैं. आज इन्हें बहुत सालों बाद पढ़ रहा था, तो लगा कि आप मित्रों से भी इन्हें साझा किया जाये...

प्रश्न

दर्पण निहारने का
कार्यक्रम
**

उत्तर

जिसे
ढूँढा जाए
**

इच्छा

स्वाद की तलाश में
पीड़ा भोगने की
एक क्रिया
**

जीवन

आड़ी-टेढ़ी
लकीरों का
एक लटकता गुच्छ

जिसे खींचने पर
गाँठ पड़ने का भय
सदैव बना रहा
**

माँ

जो जानती है हमारे विषय में वह सब
जो हम नहीं जान पाते कभी

जो हमें दे सकती है वह सब
जिसके आभाव में स्वयम वह
कलपती रही है ता-उम्र

जो सदा हमें छिपाने को तैयार
हम चाहें तो भी, न चाहे तो भी

जिसकी उंगलियाँ जानती हैं बुनना
जिसकी आँखें जानती है डूब जाना
जिसके स्वर में शैली और गुनगुनाहट हो

जो हमेशा चादरों की बात करे.
**

पिता

उन्हें नहीं मालूम
उनकी किस उत्तेजना में बीज था

वे घबराते हैं
यह जानकार कि काबिलियत 
उनके ही अस्तबल का घोड़ा है
संतति को लायक बनाने के लिए
सारी तैयारियां कर चुके हैं वे

और यह सोचकर ही
खुश हो लेते हैं कि उनके बच्चे
नहीं बंधना चाहते हैं उस रस्सी से
कि जिससे बंधते आये हैं वे
और उनके पूर्वज

विरासत में लेकिन
बच्चों के लिए
वे छोड़ जाते हैं
कई-कई मन रस्सियाँ.
**

ईश्वर

दौड़ते हुए लोगों की आकांक्षा
दौड़ने के ख्वाहिशमंदों के लिए एक आकर्षण
दौड़कर थके और पस्त हुए लोगों के लिए
होमियोपैथिक दवा

जो दौड़ न सके
उनके लिए तर्क
दौड़ते-दौड़ते गिर गए जो
उनके लिए प्यास

जिसने अभी चलना नहीं सीखा
उसके लिए जरूरी पाठ्यक्रम

असल में ईश्वर
उपन्यास का एक ऐसा पात्र
जिसके चरित्र पर है
लेखक का सर्वाधिकार.
**

मैं

जो अपने विषय में
सोच भी नहीं सकता
**

तुम

जो मेरे विषय में
सोच ही नहीं रखते
**

सच

जिसका कोई ठिकाना न हो
जो ढूंढते हुए ठौर 
पूछ बैठे
आपसे रास्ता
**

झूठ

जिसके विकल्पों के ढेर 
हों अनुपलब्ध
**

दृष्टि

जो देखे हुए को
झुठलाये एक बार
बार-बार
हर बार
**

आग

कोने में
ठंडा पडा है चूल्हा
पेट में तेज लगी है आग
**

स्त्री

अपने स्तन
और योनि की वजह
जिसे सहना पड़े
लांछन बार-बार
**

पुरुष

असमंजस का शिकार
बार-बार
फिर भी निर्णय के सूत्र पर
उसका ही अधिकार
**

भूख

जो मस्तिष्क से पेट के बीच
झूलती रहती हो
बिना लटके
**

नींद

अपलक जो
बुनता रहा भविष्य
उसके सपनों को आ गई नींद.
**

दिन

जो पक्षियों के कलरव से जन्में
और फूलों की पंखड़ियों में मुरझा जाए
**

रात

सीख गए जो
मजबूरी-लाचारी जैसे शब्द
इनका मतलब उन्हें समझाती है रात
**

हंसी

आँखें रोना चाहती हैं
लेकिन औरों को देख होंटों ने हंस दिया
**

रुलाई

घर से दूर है मस्जिद
तो रहा करे
और बच्चे
तू तो रोता ही रह
खुदा का अब मेरे घर
रोज का आना-जाना है.
**

अस्पताल

मृत्यु का 
एक ऐसा प्रतीक्षालय
जहां से
मृत्यु के आगमन-प्रस्थान का पट
नदारद हो
**

मरीज

जो मरेगा
लेकिन अपनी मौत नहीं
**

चिकित्सक

डिग्रियां लेकर
जो दवाइयां बेचे
जो कभी न कहे
यूरेका मैं सीख गया.
**

रौशनी

जलने से नहीं होती रौशनी
अँधेरे को खुला छोड़ दो
वह ढूंढ लाएगा
**

धुआं

आँखों से
आंसू निकालने की क्षमता के बावजूद
जिसे नसीब न हों आँखें
**

विवाह

इच्छा को
अच्छा बनाने का
एक सामाजिक प्रयास
**

विद्यालय

पुस्तकों के वजन मापन की 
प्रथम इकाई
**

पुत्र

पिता का उपनाम
**

पुत्री

जिसे देख
पिता की आँखें सिकुड़ती रहें
भय और चिंता से
**

शिक्षक

स्वयं जो जानता है
वही दूसरों से भी कहे जानने
जिन बातों को मारे दर के
खुद नहीं मान पाया
उन्हीं बातों को मान लेने की
नसीहत देता फिरे
**

पुस्तक

अक्षर के काँधे पर
भारी शब्द भीड़
कि जिसके साथ चलती है अविरत
भावनाओं की शवयात्रा
जिसे दो वाक्यों के बीच
खड़े होकर सिर्फ
सिद्धार्थ ही देख सके

काश! वे पढ़ भी लेते
**

प्रयास

आत्म-मनन की दिशा में
एक कदम
**

दिशा

दृष्टि की
कट्टर समर्थक
**

असफलता

पिता की गोद में
बैठे बेटे के सिर पर
चोंच मारने का उपक्रम करता कौआ
**

फिल्म

खुली आँखों का स्वप्न
खोई हुई आँखों की मंजिल
**

बस

जिसे चालाक नहीं
परिचालक चलाता है
**

रेल

जिसमे
सफ़र करती हैं
दुश्चिंताएं
शंका
और भय
**

गोबर

दैनिक जरूरतों से भरी
एक नारी का शोकगीत
**

विज्ञापन

जिसके विषय में
सदैव बना रहे असमंजस
**

पत्रकार

जो अपनी भूख को
कर सके परिभाषित
**

पत्रकारिता

कलम जानती हो
कि बिन स्याही वह अस्तित्वहीन और गैर-महत्त्वपूर्ण है

फिर भी चले बे-मसि
**

शून्य

दिन भर अथक पसीना बहाकर भी
सोना पड़े रात
घुटनों को पेट से सटाकर
**

न्यायालय

जहां न्याय
दो वकीलों के बीच
बहस का मुद्दा हो

जहां न्याय
किसी न किसी कटघरे में ही खड़ा होता हो

जहां न्याय
न्यायाधीश की मर्ज़ी पर आश्रित है

जहां से कभी भी
सुनी जा सकती है
न्याय की चीख
**

वकील

जो न्याय साबित कर सकता हो
जो अन्याय साबित कर सकता हो
जो न्याय को अन्याय साबित कर सकता हो
जो अन्याय को न्याय साबित कर सकता हो
जो नहीं जानता न्याय क्या है-अन्याय क्या है
बस साबित कर सकता हो
**

न्यायाधीश

जो न्याय और अन्याय के बीच करना चाहता हो अंतर
जिसके लिए न्याय वह है जो अन्याय नहीं
जिसके लिए अन्याय वह है जो न्याय नहीं
जो जानता है कि न्याय और अन्याय के बीच वह स्वयं है
लेकिन मानता नहीं
**

ज्ञान

मिटने-मिटाने से होता है आरम्भ जिसका
और पा जाने के एहसास से हो जाता है ख़त्म 
**

धरती

जिसके लिए लड़े जाएँ
सबसे ज्यादा मुकदमें
या फिर की जाएँ हत्याएं
**

आकाश

जहां वांछित हो हवा-पानी
अनुसंधान के रूप में
**

बिस्तर

नींद आने के बाद जरूरी
नींद से जागने के बाद जरूरी
**

पर्वत

जहां से ट्रकों
और बसों को गिरने में आसानी हो
जहां मंदिर बनाना कभी भी
घाटे का सौदा नहीं होता
**

समय

जो अपने पास न हो
लेकीन दूसरों की कलाइयों पर
और मुट्ठियों में सदा दिखाई दे
**

जंगल

जहां
वृक्ष निर्भय होकर श्वाश भर सकें
जहां पशुओं के आने-जाने पर
किसी के पेट में दर्द न होता हो
जहां धरती, आकाश, पृथ्वी, वायु और अग्नि की
एक ही इच्छा होती हो कि कोई उन्हें
निर्वासित न कर सकें
**

नदी

जो बहना जानती हो
जो बहाना जानती हो
जो डूबना जानती हो
जो डुबाना जानती हो

जिसमें इतनी सहिष्णुता हो कि
कोई भी उसके किनार बैठ कर फारिग हो सके
**

प्रेमिका

जो कहानियों के लिए जरूरी है
जो हंसकर उद्घाटित करती है कविता
जो हमेशा चाहती है कि कोई उसे हमेशा चाहे
जो देना चाहती है आकुलता को एक नया अर्थ

प्रेमिका सिर्फ स्त्री ही हो सकती है
**

कवि

जो सूर्य से ऊष्मा, ऊर्जा और प्रकाश के इतर भी कुछ पाता हो
जो चाहता हो कि पक्षी भी उड़े गगन में पंख हिलाए बिना
जो बिखरा पाता है खुद को अपने आस-पास
जो हमेशा पीना चाहता है गिलास की अंतिम बूँद
जो जानता है कि चाँद
दूज से पूर्णिमा तक और पूर्णिमा से अमावस का सफ़र
करता है नियमित
फिर भी हठ, आग्रह, आन्दोलन करे कि
चाँद की यात्रा
अनियमित की जाए

जो कविताएं लिखे ही नहीं
जिए भी.

****

शनिवार, 18 जून 2011

टूट जाना ही बेहतर...

( सुभाष तुलसीता का रेखांकन  )

हालाँकि 
टूटने के बाद 
बिखरने का डर बना रहता है, 
लेकिन मैं सोचता हूँ 
कि टूट ही जाऊं तो बेहतर होगा 

आखिर कब तक बिखरने के डर से
न टूटने का अभिनय करता फिरूंगा

आप मित्रों से अनुरोध है कि मैं बिखरने लगूँ यदि, तो कृपया मुझे समेटने की कोशिश बिलकुल न कीजियेगा.
हालाँकि मैं जानता हूँ
किसी के बिखराव का चश्मदीद होना आसान नहीं होता
हमारा अहम् हमें न बिखरने की ही इजाज़त देता है और न ही बिखराव के दर्शक होने की
लेकिन कद्रदानों-मेहरबानों 
मुझे बिखरने देना
टूट-टूट कर बिखरने देना
चूर-चूर होकर बिखरने देना
फूट-फूट कर बिखरने देना

मत रोकना
मत टोकना
हाँ नज़र जरूर रखना कि
कोई मेरे बिखराव का अफसाना न बना ले
कोई मेरे बिखराव को अपने शिगूफों का ठिकाना न बना ले
कोई मेरे बिखराव पर अपनी रोटियां न सेक ले
कोई मेरे बिखराव की बोटियाँ न नोच ले

ये क्या
मैं तो सच-मुच टूट रहा हूँ...!!! ???

शुक्रवार, 17 जून 2011

क्यों जरूरी है फाल्गुन विश्व का प्रकाशन?



   इसलिए जरूरी है फाल्गुन विश्व का प्रकाशन -

- ताकि प्रतिरोध और असहमतियों की आवाजों के लिए जगह बची रहे.

- ताकि रूबरू होता रहे आम पाठक अपने समय-सत्ता-समाज से.

- ताकि मुझे जीने का मकसद मिले.

- ताकि तुम्हें जीने का मकसद मिले.

- ताकि बेहतर दुनिया बनाने का हमारा सपना आकार पाए...

- ताकि संभावनाएं अशेष रहें

- ताकि विडम्बनाएं मुक्ति पायें

- ताकि समता और इन्साफ हमारे समाज का चरित्र बनें

- ताकि हर कोई बन सके अपना दीपक स्वयं, ''अत्त दीपो भव"

आइये मिलजुलकर इस अभियान को आगे बढ़ाएं

फाल्गुन विश्व पढ़े-पढ़ाएं

एक अंक - मूल्य १० रूपए मात्र

सालाना ग्राहकी महज १०० रूपए में 

आजीवन सदस्यता शुल्क - १,००० रूपए मात्र

अंक पाने के लिए editorfalgunvishwa@gmail.com पर मेल करें.

सालाना ग्राहक अथवा आजीवन सदस्य बनने के इच्छुक सीधे फाल्गुन विश्व के खाते में अपनी राशि जमा करा सकते हैं. 
खाते का विवरण इस प्रकार है.
फाल्गुन विश्व
खाता क्रमांक 3122623992 
सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया
शाखा कन्हान, नागपुर

कृपया बैंक में राशि जमा कराने के पश्चात अपना नाम और पता मोबाइल क्रमांक 09372727259  पर एस.एम्.एस. करें.

आइये हमकदम बनें, हमनवा बनें
बेहतर दुनिया का सपना साकार करें...




गुरुवार, 16 जून 2011

क्योंकि कामठे जी सोते रहे, इसलिए सैकड़ों लोग जागते रहे...


अच्छा हुआ आप यहाँ नहीं हैं, हमारे साथ. अरे साहब हम इस समय महाराष्ट्र की उपराजधानी यानी नागपुर जिले के एक छोटे से गाँव कन्हान में हैं. कन्हान के तुकराम नगर मोहल्ले में किराए से रहते हैं अपन. यदि आप भी कल मेरे साथ यहाँ होते, तो रात भर आपको जागना पड़ता. जी जागना इसलिए पड़ता क्योंकि कामठे साहब सोये हुए थे. 
अब ये कामठे साहब के सोने की वजह से अपने जागने का क्या मतलब? यही पूछना चाहते हैं न आप? तो साहेबान  जान लीजिये की कामठे साहब वो शख्स हैं की जिनकी मर्जी की बिना इनदिनों रातों में सो पाना नामुमकिन हैं. कामठे साहब सोते रहेंगे तो मच्छर आपके यहाँ अपने पूरे कुटुंब के साथ डेरा डाल देंगे. बारिश का मौसम है साहेबान, उमस भी इनदिनों क्या कमाल की होती है, फिर चाहे रात हो या दिन, उमस तो अँधेरा-उजाला देखकर होती नहीं.
कामठे साहब, हमारे 'इलाके' के कतिपय गणमान्य 'लाइनमैनों' में से एक 'लाइनमैन' हैं!! जी लाइनमैन!!!
लाइनमैन यानी ऐसा व्यक्ति जो आपकी रात खराब कर सकता है, आपके सपनों को चकनाचूर कर सकता है. 
पिछली रात यानी १५ जून की रात पूरी दुनिया चंद्रग्रहण का मजा ले रही थी. ये गलती अपन ने भी की. रात के ढाई बजे तक अपन ने भी चंद्रग्रहण का नज़ारा देखा. बस छत से उतरकर घर में जैसे ही दाखिल हुए, बिजली गुल हो गई. वापस छत पर गए तो आधे कन्हान में बिजली दिखाई दी. समझ आया कि अपने मोहल्ले का फ्यूज गया है. बिजली विभाग के दफ्तर फोन घनघनाया गया तो मालूम हुआ कि लाइनमैन से संपर्क किया जा रहा है, लेकिन उनका 'मोबाइल स्विच ऑफ' बता रहा है. अब बताइये, इन लाइनमैन साहब की रात पाली है और ये जनाब अपना मोबाइल बंद कर आराम से घर में सोये हुए हैं. विभाग के आला अधिकारियों को जब इस बात की जानकारी दी गई और बताया गया कि लाइनमैन फोन बंदकर घर में सो रहा है, तो अधिकारियों का जवाब था, "आइये मिलकर इंतज़ार करें".
और फिर हम सबने मिलकर बिजली विभाग के दफ्तर में ही कामठे साहब का इंतज़ार किया. सुबह सात बजे कामठे साहब सोकर उठे. हाथ-मुंह पर पानी का छींटा रसीद किया और पहुँच गए दफ्तर, क्योंकि आठ बजे उनकी पाली ख़त्म होने वाली थी. दफ्तर पहुँचते ही उन्होंने 'कम्प्लेंट रजिस्टर' का मुआइना कर लिया. "ये क्या तुकाराम नगर में रात ढाई बजे से एक फेस फ्यूज है", लगभग चीखते हुए उन्होंने हैरत प्रगट की और खा जाने वाली नजरों से 'कम्प्लेंट अटेंडेंट' को देखा. फ़ौरन अपनी गाड़ी उठाई और तुकाराम नगर की और चल दिए. वहाँ जाकर उन्होंने फेस दुरुस्त कर दिया. साढ़े सात बजते-बजते तुकाराम नगर में फिर लौट आई बिजली रानी. पुनः दफ्तर लौट कर कामठे साहब ने बड़बड़ाते हुए हम लोगों को सुनाना शुरू किया, "फ्यूज जाता है तो क्या मेरे को बता नहीं सकते आप लोग, मेरे को आप लोग गैर समझते हो! अरे एक फोन नहीं कर सकते आप लोग!!" उनके दुःख को देखकर हमें यानी तुकराम नगर के वासियों और विभाग के आला अधिकारियों को अपनी गलती का एहसास हुआ और हम लोग सर हिलाते और मंद-मंद मुस्कुराते अपने-अपने घरों की और लौटे.
उधर मजमा छंटते ही  कामठे साहब ने गार्ड को हुक्म दिया, "जा बे दोन चाय ला, एक तू पी, एक मेरे को ला, आज की नौकरी बड़ी मुश्किल से बची है साली!!!"

गुरुवार, 26 मई 2011

एक जून को फाल्गुन विश्व की पहली वर्षगाँठ है


आगामी एक जून को फाल्गुन विश्व की पहली वर्षगाँठ है. यों १७ जुलाई २००९ को फाल्गुन विश्व एक साप्ताहिक के तौर पर पाठकों से रू-ब-रू हुआ था, लेकिन एक सांस्कृतिक-वैचारिक पत्रिका को हर सप्ताह सिर्फ उत्साह और जिद के भरोसे नहीं प्रकाशित किया जा सकता. मार्च २०१० में पत्रिका बंद हो गई. लेकिन जून २०१० में हमने मासिक के तौर पर वापसी की. रंगीन आवरण में हमने फाल्गुन विश्व का प्रवेशांक प्रकाशित किया. महज ५०० प्रतियां छपी गई. इससे ज्यादा छपने का पैसा ही नहीं था. प्रवेशांक को पाठकों ने हाथों-हाथ लिया लेकिन जुलाई का अंक छापने के लिए जरूरी धन एकत्रित नहीं हो पाया, लिहाजा जुलाई और अगस्त का अंक संयुक्त रूप से प्रकाशित करने का निर्णय हुआ. लेकिन अगस्त में भी जरूरी धन में कमी रह गई, सो जुलाई-अगस्त और सितम्बर का संयुक्त अंक प्रकाशित हुआ. लेकिन आवरण ब्लैक-वाइट रहा. इस बार भी प्रतियां ५०० ही छपी गई. पाठकों ने इस अंक को भी तहेदिल से स्वीकार किया.

अक्तूबर में कुछ मित्रों के सुझाव पर सदस्यता मुहिम चलाई गई. महज दस रुपये में साल भर पत्रिका देने की बात हुई. यह योजना बनी की यदि देश भर में पत्रिका के दस हज़ार पाठक इस मुहिम के जरिये जोड़ लिए जाते हैं तो हमारे पास एक लाख रुपये जमा हो जायेंगे, जिससे पत्रिका निकालने के वास्ते अंटी में कुछ पैसा हो जाएगा और दस हज़ार पाठकों का साथ मिल जाएगा, जिससे विज्ञापन पाने में कुछ आसानी होने लगेगी. इस मुहिम के लिए बड़ी संख्या में शुभचिंतकों के सहयोग की जरूरत थी. कुछ मित्रों ने आगे बढ़कर इस मुहिम का जिम्मा लिया. तय हुआ की हरेक मित्र अपने दस मित्रों को इस मुहिम में जोड़ेगा. हमें कुल ४०० साथियों की जरूरत थी, जिनमें से हरेक को २५-२५ सदस्य बनाने थे, जिससे एक साथी के जरिये फाल्गुन विश्व के अकाउंट में २५० रुपये पहुँचता, इस तरह ४०० साथियों के जरिये आसानी से हम एक लाख रुपये इकट्ठा कर लेते. 

मुहिम शुरू हुई, एक समय सीमा बनाई गई की एक महीने के भीतर-भीतर अपने लक्ष्य को पूरा कर लिया जाएगा. जिन मित्रों ने बढ़-चढ़ कर इस मुहिम का जिम्मा लिया था, अचानक उन्हें जरूरी काम याद आने लगे और एक महीना ख़त्म होते-होते महज दस साथी ही सदस्यता मुहिम को अंजाम दे पाए. सीधी भाषा में हमारे योजना की हवा निकल चुकी थी. कई साथी अपनी जेब से २५० सौ रुपये देने को तैयार थे, लेकिन पाठक बनाने को तैयार नहीं थे. मुझे उनकी इस उदारता का कारण आज तक नहीं मालूम है.

एक लाख की जगह अंटी में ढाई हज़ार रुपये आये. एक लम्बी सांस लेकर फिर से शुरुवात का निर्णय हुआ. अबकि बार साथ में कोई न था. लेकिन जाने क्यों हौसला कम नहीं हुआ. घर में नज़र दौड़ाई और उन गैर-जरूरी चीजों पर जाकर नज़र टिक गई, जिनके बिना भी गृहस्थी की गाड़ी आसानी से चल सकती थी. एक-एक कर वे चीजें घर में कम होने लगी, पत्रिका नियमित निकलने लगी. पत्रिका को ख़ास लोगों तक पहुंचाने का कोई तुक नहीं था, सो आम लोगों तक पत्रिका पहुचाई गई. आम लोगों ने पत्रिका को हाथों-हाथ लिया.

जनवरी आते-आते एक हज़ार पाठक फाल्गुन विश्व पढ़ने लगे. यह भी सच है कि सभी लोग खरीद कर पत्रिका नहीं पढ़ रहे थे, लेकिन जो लोग भी पत्रिका ले रहे थे, वे पत्रिका पढ़ रहे थे, उस पर मुझसे बात कर रहे थे. पत्रिका में छपी रचनाओं से सहमती-असहमति जता रहे थे, और अपने खर्च से गोष्टियाँ कर रहे थे, जिसमें पत्रिका में छपी रचनाओं पर चर्चा हो रही थी. एकाध बार उन लोगों ने मुझे भी बुलाया, लेकिन निजी कारणों से मैं उनकी चर्चाओं में शामिल न हो सका.

आज नागपुर समेत समूचे विदर्भ में पांच हज़ार से ज्यादा लोग फाल्गुन विश्व पढ़ते हैं और ये वे लोग हैं जिनके पास इन्टरनेट और कंप्यूटर जैसी सुविधाएं नहीं है. मोबाइल है तो सिर्फ इसलिए कि अपने जानने वालों का हाल-चाल पूछ सकें, बता सकें. टी.वी है लेकिन उसे चलाने के लिए बिजली नहीं है. उनके लिए फाल्गुन विश्व जैसे दीन-दुनिया को समझने के एक जरिया बन गई है. मेरा भी सारा ध्यान अपने इन अमूल्य पाठकों पर केन्द्रित है. कई ऐसे आदिवासी युवा हैं जो पत्रिका पढ़ लेने के बाद चर्चा के लिए मेरे पास आते हैं. उनसे बात कर मेरा ज्ञान बढ़ रहा है, मेरी समझ बढ़ रही है. संकल्प दृढ़ हो रहा है....

कई मित्र कहते हैं कि आपकी पत्रिका में लगभग वही रचनाएँ रहती है, जिसे हमने पहले ही इन्टरनेट पर पढ़ लिया है. उनकी बात सही भी है. मैं जानकीपुल.कॉम, मोहल्ल लाइव.कॉम, समालोचना.ब्लागस्पाट.कॉम जैसी वेब पत्रिकाओं से साभार रचनाएं अपनी पत्रिका में छपता रहता हूँ. क्योंकि मैं मानता हूँ कि अच्छी रचनाओं पर मात्र उन्हीं पाठकों भर का अधिकार नहीं है, जो इन्टरनेट पर इन्हें पढ़ सकते हैं. मैं जिस भी वेब पत्रिका से रचना लेता हूँ, अपनी पत्रिका में उस वेब पत्रिका का उल्लेख करता हूँ और उन्हें रचना का श्रेय देता हूँ. 

दिसंबर २०१० में मुझे राज रगतसिंगे का साथ मिला. राज साहब जैसा कि मैं उन्हें प्यार से कहता हूँ, एक बीमा एजेंट हैं, लेकिन पढ़ने-पढ़ाने के शौक़ीन. उन्होंने जनवरी से फाल्गुन विश्व को प्रकाशित करने का मासिक खर्च उठाना शुरू किया. इस काम में वे मनीष गायकवाड़ नामक अपने मित्र की मदद लेते हैं. मनीष पत्रिका छापने का खर्च देते हैं और राज साहब पाठकों तक पहुंचाने का इंतजाम करते हैं. फिलहाल इसी तरह यह सफ़र जारी है. हर महीने पांच हज़ार प्रतियां छप रही हैं और उन पाठकों तक पहुँच रही हैं, जिनमें इसे पढ़ने की ललक है.

फाल्गुन विश्व का सफ़र जारी है और अपनी पहली वर्षगाँठ पर मैं अपने माता-पिता, अपनी पत्नी और बेटियों के साथ अनुज धर्मेन्द्र और भाई लीलाधर का भी शुक्रगुजार हूँ. इन सभी के परिश्रम के बिना फाल्गुन विश्व का एक भी अंक साकार न हो पता. आइये फाल्गुन विश्व के हमसफ़र बनिए, आपका स्वागत है...

बुधवार, 25 मई 2011

ये हैं सबीहा खुर्शीद, नहीं डाक्टर सबीहा खुर्शीद.


ये हैं सबीहा खुर्शीद, नहीं डाक्टर सबीहा खुर्शीद. नागपुर के पास एक छोटे से कस्बे कामठी में रहती हैं. सबीहा ने हाल ही 'उर्दू में माहिया निगारी' पर पी.एचडी. हासिल की है. इस विषय पर अनुसंधान करने वाली वे देश और दुनिया की पहली शख्सियत हैं. पंजाब में लोकगीत के तौर पर माहिया की बड़ी प्रतिष्ठा है. लेकिन पंजाबी में माहिया के आगाज़, इर्तेका और उर्दू में इसके इब्तेदा के साथ उर्दू में होने वाले वजन और मेज़ाज़ को सबीहा ने अपने अनुसन्धान का विषय बनाया. उन्होंने माहिए के लिए किये जाने वाले तजुर्बात को भी निशान ज़द किया और माहिया कहने वालों को उनके इलाकाई हवाले से उजागर किया है. सबीहा के अनुसन्धान में मगरीबी दुनिया के माहिया निगार, हिन्दुस्तान के माहिया निगार, पकिस्तान के माहिया निगार तफसील से अपनी जगह बनाए हुए हैं. उर्दू माहिए के बानी हिम्मत राय शर्मा और इस तहरीक के रूह-ए-रवां हैदर कुरैशी तक, सभी से सबीहा आपका परिचय पूरी शिद्दत के साथ कराती हैं.
सबीहा एक बुनकर के घर पैदा हुईं और तमाम जद्दोजहद के साथ अपनी शिक्षा को उन्होंने एक मुक्कल मुकाम तक पहुंचाया है. अपने घर में पढ़ने-लिखने का जुनून रखने वाली पहली ही शख्स बनीं, जिससे एक बहन और एक छोटे भाई ने भी शिक्षा को अपने जीवन लक्ष्य पाने का जरिया बनाया. सबीहा के सबसे बड़े भाई शहीद युसूफी गैस-बत्ती का छोटा सा कारोबार करते हैं और अपनी सीमित कमाई से इतना इंतजाम जरूर करते रहे कि सबीहा की पढ़ाई और पी.एचडी. में ज़रा भी बाधा न आये.
सबीहा को राष्ट्रसंत तुकडोजी महाराज विश्विद्यालय यानि नागपुर विश्वविद्यालय जल्द ही 'उर्दू में माहिया निगारी के लिए 'पी.एचडी.' प्रदान करने जा रहा है. सबीहा को अशेष-अनंत शुभकामनाएं...

मंगलवार, 24 मई 2011

कहाँ हो तुम?


अब तो तुम्हारी छवि भी स्मृतियों से धूमिल होने लगी है
दिन में एक बार
उस मोड़ से गुजरना ही होता है मुझे
जहां तुम्हें हँसते देखकर
गिर पड़ा था वह सावंला बाइक सवार अपनी होंडा सीडी हंड्रेड से
उस पुल पर से भी
जिस पर न जाने कितनी ही बार
ठहर गया था समय
तुम्हें गुजरते देख

तुम्हें याद है
मुकेश का वह दर्दीला गीत
'दीवानों से ये मत पूछो...'
जिसकी अंतिम दो पंक्तियाँ
मैं अपनी नाक दबा कर गाता था
और तुम गीत के तमाम दर्द को महसूसने के बावजूद
खिलखिला कर हंस पड़ती थी

हिस्लॉप कॉलेज के प्रांगण
में उस रोज जब
बहुत दिनों बाद देखा था मैंने और तुमने
एक-दूसरे को
तो हमारे चेहरे के लाली चुराकर भाग गया था
सूर्य आकाश में
याद है न तुम्हें!

कैसी हो तुम या कैसी होगी?
इस सवाल का जवाब कभी नहीं ढूँढा मैंने
तुम्हें ढूंढते हुए भी
लेकिन मुझे हमेशा अंदेशा लगा रहता है कि
कहीं घट न रही हो
तुम्हारे मुस्कान की लम्बाई इस कठिनतम दौर में

तुम्हारे चेहरे का हर शफा
मैं लगभग भूल चूका हूँ
सिवाय तुम्हारे मुस्कान के
भूल चुका हूँ सारी बातें
सिवाय उस मौन के जिसे
तुमने कभी नहीं तोड़ा
मैंने तोड़ना चाहा तब भी

एक बार और देख लेने की तमन्ना है तुम्हें
क्योंकि मेरी ही तरह बदल गई होगी
तुम्हारी भी डील-डौल
और अब हिचकियाँ तुम्हें भी
होली-दिवाली पर ही आती होंगी

एक बार और देख लू तुम्हें
तो कम से कम कुछ दिन तो
आराम से सो पाउँगा
पिछले सत्रह सालों से नहीं सोया हूँ
क्या तुम सोयी?

रविवार, 22 मई 2011

वह चाहता है


वह चाहता है 
कोई आदमी
उसे आदमी न कहे
मेले में उस रोज
घुमा आया है वह
अपनी आदमियत

वह चाहता है 
उसे मित्र न माना जाए
कितने ही मित्रों की जेबें
वह कर चुका है छलनी

वह चाहता है 
दुनिया भर के लोग
अमन और अधिकार से जीवित रहें
मरने पर सभी का अभिवादन किया जाए

वह चाहता है  
राह चलती स्त्रियाँ
यों ही न जाने दें अपनी खुजली
वह चाहता है 
समाज अपने बवासीर का इलाज़ 
जल्द से जल्द कराये

हालांकि सब की तरह आप भी उसे पागल कह सकते हैं
वह चाहता है
उसे पागल न कहा जाए
न माना जाए

(कविता संग्रह 'सो जाओ रात' से) 

गुरुवार, 19 मई 2011

१९ मई १९९६ को मेरी उम्र २२ साल की थी और मेरी दुनिया बदल गई थी.

(मेरी शरीक-ए-हयात सुषमा)

२१ बरस का होते ही मैंने समाज को बेहतर बनाने का सपना देखते हुए घर छोड़ दिया था. साथ मौसेरे भाई हेमधर भी थे. हमने तय किया था की बस चलते जायेंगे सन्यासियों की तरह और समाज को समझते-समझाते समूचा जीवन बिताएंगे. कृष्ण जन्माष्टमी की रात हमने चुपके से घर छोड़ा. दोनों भाइयों ने एक-एक चिट्ठी लिखी और अपने-अपने घर के पूजा-घर में 'भगवान् के सिंहासन' में रख आये. 'भगवान् के सिंहासन' में इसलिए कि हम दोनों के पिता सुबह भोर में ही स्नान कर लेते थे और घंटों पूजा घर में बिताते थे. भगवान् को नहलाते समय सिंहासन साफ़ किया जाता था और उस समय उन्हें चिट्ठियां आसानी से मिल सकती थीं. चिट्ठियों में यही लिखा था कि हम लोग अपनी मर्जी से घर छोड़ कर जा रहे हैं और हमें ढूंढने की कोई कोशिश न की जाए... अब से यह दुनिया ही हमारा घर है... 
रात बारह बजे घर से निकल कर हम दोनों अधाधुंध पैदल चलते रहे... सुबह होते-होते हम लोग लगभग साठ किलोमीटर पैदल चल चुके थे. महाराष्ट्र बार्डर पार कर हम दोनों मध्यप्रदेश की सीमा में आ गए थे. अपने ज़रा से कानूनी ज्ञान से हम इतना जानते थे की यदि पुलिस की मदद से हमारे परिजन हमें ढूंढने की कोशिश करेंगे तो राज्य सीमा बदल जाने से हम आसानी से उनके हाथ नहीं आयेंगे. खवासा नामक उस सीमान्त गाँव में हम दोनों ने एक होटल में जलपान किया. जलपान के बाद चलने में दिक्कत होने लगी. हेमधर तो चलते-चलते दो-तीन बार गिर गए. हमने कुछ देर बैठकर फिर चलने का निर्णय किया. बैठे-बैठे हेमधर रो पड़े. उन्हें अपने पिता की चिंता होने लगी. वह पिता के साथ अकेले रहते थे. बाकी परिवार गाँव में रहता था. उनका विवाह भी हो चुका था. एक-एक कर उन्हें सब की याद आने लगी. और जब उनका रोना बढ़ गया तो मैंने उनसे घर लौट जाने का अनुनय किया. वह मेरे बिना घर लौटने को तैयार न थे. मैंने घर लौटने से साफ़ मना कर दिया. फिर वे अकेले ही लौटने को तैयार हो गए. वापस खवासा लौट कर उन्हें बस में बिठाया. क्योंकि हम लोग पैसे लेकर घर से चले ही न थे, सो उनका बस का टिकट कटाने के लिए मुझे बस के यात्रियों से 'भीख' मांगनी पड़ी.
भाई हेमधर लौट गए और मैंने अपनी यात्रा जारी रखी...
पता नहीं, कैसा जोश था. हेमधर खवासा से साढ़े आठ बजे सुबह नागपुर के लिए बस से रवाना हुए थे और मैं उसी समय जबलपुर की दिशा में पैदल. साढ़े तीन बजे मैं सिवनी पहुँच गया. मेरे मित्र लीलाधर सोनी (जो इस समय एक कंपनी में प्रोजेक्ट इंजीनिअर हैं) उस समय सिवनी के शासकीय पोलिटेक्निक कॉलेज में इलेक्ट्रिक इंजीनिअरिंग की पढ़ाई कर रहे थे. मेरे पास उनके कॉलेज का फोन नंबर था. कॉलेज में फोन किया. सोनी जी उस समय प्रयोगशाला में थे. कुछ देर बाद उनसे बात हुई. मैंने उन्हें बताया कि मैं घर छोड़कर दुनिया को बेहतर बनाने निकला हूँ. पैदल ही हूँ. आज रात आपके कमरे पर विश्राम की इच्छा है. कल सुबह होते ही आगे कूच कर जाऊँगा. सोनी जी ने फोन पर यह कहते हुए मुझे जहां का तहां खड़े रहने की हिदायत दी कि वे तुरंत मुझे लेने आ रहे हैं. दस मिनट भी न बीते होंगे कि वे अपने दो मित्रों के साथ आ गए. मुझसे गले मिले और दोस्तों की तरफ देखकर कहने लगे, 'हम लोग बेकार की प्रयोगशाला में समय बर्बाद कर रहे थे, इनसे मिलिए ये हैं चलती-फिरती लेकिन जीवंत प्रयोगशाला.' और इसके बाद हंसी-ठहाकों का लम्बा दौर चलता रहा. हम रिक्शे से उनके कमरे पर पहुंचे. सोनी जी अपने चार मित्रों के साथ रहते थे. दो कमरों में दो-दो लोग रहते थे.
कुछ देर बाद मुझे एकदम हेमधर की याद आयी और यह भी कि वे घर लौट गए हैं.
हेमधर भी लगभग उसी समय घर लौटे, जिस समय मैं सिवनी पहुंचा था. बस स्टैंड से सीधे वे मेरे घर गए और वहाँ सारा किस्सा एक ही बार में बता गए. उस समय तक घर में हडकंप मच चुका था. पिता बदहवास मेरे जाने वालों के बीच मुझे ढूंढने की नाकाम कोशिश कर रहे थे. चिट्ठी के हिसाब से मैं दुनिया बेहतर बनाने निकला था और उन्हें यह समझ नहीं आ रहा था कि दुनिया बेहतर बनाने के लिए अपना घरबार छोड़ने की जरूरत क्या है. अपना यही असमंजस वे मेरे सभी मित्रों से साझा कर रहे थे. दोपहर बाद जब हेमधर के घर लौटने की खबर उन तक पहुंची तो वे मेरे एक मित्र के साथ स्थानीय पुलिस स्टेशन में बैठे थे. हेमधर की लौटने की खबर से वे उत्साहित हुए और मेरे गुमशुदगी की रपट लिखाए बिना ही घर लौट आये.
हेमधर की लौटने की खबर पाकर मेरे मौसाजी भी मेरे घर पहुँच गए थे. मौसा जी मेरे घर से कोई एक किलोमीटर की दूरी पर रहते थे. मेरे पिता और मौसा दोनों ही कोयला मजदूर थे और दोनों को शासकीय आवास आवंटित था. हेमधर भाई ने अब चाहे जिस तरह अपनी बात रखी, लेकिन उसका यही अर्थ लगाया गया कि मैंने उन्हें बरगला कर घर से भागने के लिए मजबूर कर दिया था. क्योंकि खवासा में सुबह नाश्ता करते समय मैंने हेमधर को यह बताया था कि शाम तक हमें सिवनी पहुंचना है और वहाँ लीलू भाई के यहाँ आराम. फिर सुबह उनके यहाँ से चलकर शाम तक जबलपुर और रात पुनश्च जबलपुर में आराम. इस तरह प्रतिदिन के चलने और रूकने के इंतजाम के बारे में मैंने उन्हें बताया था. हालाकि हम जिन भी मित्रों के यहाँ रात रुकने वाले थे, उनमे से किसी को भी हमारे इस 'मिशन' के बारे नहीं मालूम था.
बहरहाल, हेमधर की बातों से मेरे पिता को मालूम हो चुका था कि मैं उस रात सिवनी में लीलाधर सोनी के साथ रहूँगा. सोनीजी के मामा हमारे पडोसी थे. उन्हें सिवनी में लीलाधर का घर मालूम था.
हेमधर की याद आते ही मैंने अपनी आशंका लीलू भाई को बताई और यह डर भी उनसे साझा किया कि मेरे पिता, उनके मामा के साथ मुझे ढूंढते हुए वहाँ आ सकते हैं. सो हमने इस पकड़ से बचने की एक योजना बनाई. योजना यह थी कि लीलू भाई अपने मामाजी के घर फोन करेंगे और उनसे अर्जेंट पैसों की मांग करेंगे. यह भी कहेंगे कि वे पैसे लेने आज रात ही आ रहे हैं. बात-बात में सोनी जे मेरा हाल-चाल भी पूछेंगे, जैसा कि वे हर बार फोन करते समय करते हैं. कई बार तो वे मुझे फोन पर बुलाने के लिए भी अपने मामाजी से कहते हैं. इससे वहाँ के लोगों को यह यकीन हो जाएगा कि मैं सिवनी में उनके पास नहीं रुका हूँ.
सोनी जी ने अपने मामा को फोन किया और पैसो के अर्जेंसी बताई, साथ ही यह भी कहा कि बस वे थोड़ी ही देर में नागपुर के लिए निकल रहे हैं. लेकिन फोन पर वे मेरे बारे में बात नहीं कर पाए. सात बजे की बस से वे नागपुर के लिए रवाना हो गए. रात ग्यारह बजे के आसपास वे कन्हान (नागपुर के समीप के क़स्बा जहाँ मैं रहा करता था और अभी भी रहता हूँ) पहुँच गए. वहाँ उनके मामा स्कूटर लेकर उनका इंतज़ार कर रहे थे. उन्हें स्कूटर पर बैठकर उनके मामाजी चल पड़े. कुछ ही दूरी पर दो अलग-अलग स्कूटर पर मेरे पिता और मोहल्ले के तीन लोग और थे. इस तरह बिना किसी औपचारिक पूछताछ के वे लोग लीलू भाई को लेकर तीनों स्कूटर राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक सात पर दौड़ाने लगे. रात ११ बजे कन्हान से चलकर वे लोग सुबह चार बजे के आसपास सिवनी लीलू भाई के कमरे पर दबिश देने पहुँच गए.
सीढ़ियों पर कदमों की आहट से मेरी नींद खुल गई. और मैंने अपनी बगल में सोये लीलू भाई के मित्र को जगाकर इतना ही पूछा कि यहाँ से भागने के लिए मुख्य दरवाजे के अलावा और कोई रास्ता है? लेकिन वे मित्र महाशय गहरी नींद में थे और उन्होंने हाथ के इशारे से पीछे की तरफ इशारा किया. तबतक दरवाज़े पर दस्तक दी जाने लगी थी और मैं फ़टाफ़ट अपने कपडे पहनकर पिछला दरवाज़ा ढूंढ रहा था. मुझे पिछला दरवाज़ा नहीं मिला और दस्तक तेज़ होने की वजह से कमरे में रहने वालों को दरवाज़ा खोलना ही पड़ा. हताशा में मैं पानी की टंकी के पाइप पर चढ़ने की कोशिश करने लगा, लेकिन पाइप प्लास्टिक का था, सो पहले ही झटके में मुझे लेकर जमीदोंज हो गया. मैं फर्श पर पड़ा कराह रहा था, पिता मेरे सिराहने पहुँच चुके थे. लीलू भाई उनके साथ थे. उन्होंने ही सहारा देकर मुझे उठाया और अत्यंत लाचारगी से मेरी और देखा.
पिता गुस्से से मेरी और देखे जा रहे थे. मुझे सामने के कमरे की चारपाई पर बिठाया गया. पिता ने और कुछ नहीं कहा. बस इतना ही कि 'महाराज अभी घर चलो, आपके बहन की शादी हो जाए तो आप जहां चाहे मर्ज़ी चले जाना...'
लीलू भाई ने मुझे घर लौट जाने की सलाह दी. पिता के साथ आये हुए लोगों से माँ की तबियत का हवाला दिया. माँ ब्लड प्रेशर की मरीज़ थी और मुझे उनकी चिंता होने लगी. सभी ने यही समझाया कि दुनिया अपने घर पर रहकर भी बदली जा सकती है.
वह क्षण भावुकता से भरा हुआ था और शायद ठहरा हुआ भी...
मैं पिता के साथ घर लौट आया. लीलू भाई भी लौटाए गए. उन्होंने पैसों की अर्जेंसी का जो बहाना किया था, उसे उनके मामाजी ने बहाना नहीं माना था.
घर लौटा, तो माँ ने एक ही सवाल किया, 'क्यों लौट आये?' मैं माँ का चेहरा देखता रह गया. वे एकदम शांत थीं. मुझे उन लोगों पर खूब गुस्सा आया जिन्होंने माँ की तबियत का हवाला दिया था.
अगले ही दिन पिता ने मुझे अपने एक मित्र के यहाँ नज़र कैद कर दिया. लगभग एक साल तक नज़र कैद रखने के पश्चात मेरी शादी का फैसला हुआ. मुझे उस रोज़ मालूम हुआ, जिस दिन मेरा तिलक होना था. नाऊ ठाकुर एक जोड़ी कपडा लेकर आया और मुझे से कहने लगा कि जल्दी से नहा-धोकर इसे पहन लो और घर आ जाओ. मुझे लगा कि शायद मेरी रिहाई का वक़्त आ गया है. घर पहुँचने पर मालूम हुआ कि मेरा तिलक होना है. मैंने जब भीतर जाकर माँ से पूछा कि यह सब क्या है, तो उन्होंने बस इतना ही कहा, 'घुट-घुट कर जीना नहीं है अब मुझे...'
१९ मई १९९६ को २२ साल की उम्र में मेरा विवाह हो गया. दुनिया बदलने का सपना और मुगालता मैं अब भी पाले हुए हूँ. मेरी दुनिया जरूर बदल गई है. माँ की दुनिया भी बदल गई है. लिखने-पढ़ने और जीवन को समझने की उम्र में जिस व्यक्ति को आटे-दाल और नमक का भाव मालूम हो जाता है... दुनिया बदलने का माद्दा उसी में आता है... अपने अनुभव से यह बात कह रहा हूँ भाई!

खान-पान के अहम् फाल्गुन नियम

प्रतीकात्मक पेंटिंग : पुष्पेन्द्र फाल्गुन  इन्टरनेट या टेलीविजन पर आभासी स्वरुप में हो या वास्तविक रुप में आहार अथवा खान-पान को लेकर त...