सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

बहुत दिनों बाद एक ग़ज़ल मुकम्मल हुई है, ज़रा गौर फरमाएं ...


वह शख्स जो किसी मस्जिद-मंदिर नहीं जाता 
दरअसल वह आदमी किसी के घर नहीं जाता 

मस्जिद-ओ-मंदिर में अब जो भीड़-शोर-सोंग है
मैं तो मैं अब वहाँ कोई खुदा-ईश्वर नहीं जाता   

मिलाया हाथ, लगाया गले, दी तसल्लियाँ तुमने
तुम्हारे प्यार का शुक्रिया पर मेरा डर नहीं जाता 

बदला, ओढ़ा, रगड़ा, तोड़ा और कितना मरोड़ा
क्या करूँ कि तेरे ऐतबार का असर नहीं जाता 

पीने को पानी नहीं, खाने को दाना नहीं फिर भी 
तुझसे मेरा दिल ऐ ज़िन्दगी क्यों भर नहीं जाता 

मिलने पर जो आदमी देख चौंके तुम्हें फाल्गुन 
समझना उसके घर आदमी अक्सर नहीं जाता  

                                   - पुष्पेन्द्र फाल्गुन 
                                     15 अक्तूबर 2012

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