रविवार, 14 सितंबर 2014

देश की भाषा : एक सपना



एक विशाल स्टेडियम से उस कार्यक्रम का सीधा प्रसारण देश भर के टेलीविज़न चैनलों पर जारी था, जिसे मैं सपने में देख रहा था। कार्यक्रम इतना भव्य था कि स्वप्न में भी मैं पलकें नहीं झपका पा रहा था। खचाखच भरे उस स्टेडियम में सुई रखने भर की भी जगह शेष न थी। विविध भाषाओं वाले इस देश की एक भाषा चुनने के लिए यह कार्यक्रम आयोजित किया गया था। स्टेडियम में सभी राजमान्य भाषाओं के लिए उनके राज्य के भौगोलिक आकार के लिहाज से दीर्घाएं बनाई गई थीं। उन दीर्घाओं में, उन-उन भाषाओं के लेखक और विद्वतजन विराजमान थे। सभी अपनी-अपनी भाषा को देश की भाषा बनाए जाने की पुरजोर पैरवी कर रहे थे। कोई संस्कृत को प्राचीन और विज्ञानसम्मत भाषा बता रहा था, तो कोई तमिल और मराठी के पक्ष में तार्किक प्रस्ताव रख रहा था। जिस भी लेखक या विद्वान को अपनी बात कहना होता वह स्टेडियम के बीचो-बीच बने मंच पर आता, अपना नाम, अपनी भाषा बताता और तब अपनी भाषा के पक्ष में अपना तर्क प्रस्तुत करता। देश की सभी राजमान्य भाषाओं के प्रतिनिधि बोल चुके थे। संयुक्त राष्ट्र संघ की तरफ से आए पर्यवेक्षकों ने पूछा, "क्या कोई और है जो इस स्टेडियम में है और यहाँ आकर अपनी बात रखना चाहता है?"
स्टेडियम में एकदम चुप्पी छा गई, इतनी चुप्पी कि लोग अपने दिल की धड़कन साफ़-साफ़ सुन सकते थे। मैंने हिम्मत कर कहा, "जी, मैं भी कुछ कहना चाहता हूँ…"
पर्यवेक्षकों को मेरी आवाज़ सुनाई दी, लेकिन मैं उन्हें दिखाई नहीं दे रहा था। लिहाजा, उन्होंने पूछा, "आप कौन हैं? कहाँ हैं? हमें दिखाई क्यों नहीं देते?"
मैंने कहा, "मैं इस देश का आम नागरिक हूँ, देश में हर जगह रहता हूँ, आप तो विदेशी पर्यवेक्षक हैं, मैं तो अपने देश में ही किसी को दिखाई नहीं देता!"
मेरे जवाब से स्टेडियम में खलबली मच गई। अभी तक भाषायी विवाद में उलझे लेखकों और विद्वानों ने एक सुर में कहा कि यह विद्वत परिषद है और यहाँ आम नागरिक को अपना मत व्यक्त करने का कोई अधिकार नहीं है। सभी विद्वानों का साझा सवाल था, "भाषा के बारे में एक नागरिक को भला क्या इल्म?"
लेकिन संयुक राष्ट्र संघ के पर्यवेक्षकों ने कहा, "इस देश के आम नागरिक की बात भी सुनी जानी चाहिए, मानने न मानने का अधिकार आखिर हमारे पास सुरक्षित है।" विद्वतजन पर्यवेक्षकों के राय से सहमत हुए। मुझे मंच पर आने का निर्देश हुआ। मैं जैसे मंच पर पहुंचा, कहीं से आवाज़ आयी, "कहो नागरिक, देश की भाषा के बारे में तुम क्या कहना चाहते हो!" और समूचा स्टेडियम ठहाकों से गूँज उठा। 
मैं जानता था कि मेरे कहे का क्या हश्र होने वाला है, फिर भी मैंने अपनी बात शुरू की, "मैं जानता हूँ कि सवा सौ करोड़ के इस देश में एक भाषा चुनना आसान नहीं, क्योंकि हम भाषा चुनना ही नहीं चाहते। मेरे लिए भाषा वह है जिसके जरिए मैं किसी से भी संवाद साध सकूँ, जुड़ सकूँ, आपके लिए भाषा लिखने-पढ़ने और बोलने भर की चीज है। क्या बुरा होगा यदि ईमान इस देश की भाषा बन जाए, किसी का क्या बिगड़ जाएगा यदि परिश्रम इस देश की भाषा बन जाए। अमन को इस देश की भाषा कौन और क्यों बनने देना चाहता? क्या फर्क पड़ता है यदि ज्ञान और सद्भावना इस देश की भाषा हो? क्यों हम प्रेम और कल्याण को इस देश की भाषा नहीं बनने देना चाहते?"
मैं और भी कुछ कहना चाहता था, लेकिन मैंने महसूस किया कि स्टेडियम में एक भयावह सन्नाटा पसर गया है, लगा जैसे सभी सुनने वाले सुन्न हो गए हों! मैं घबरा गया, देश का आम नागरिक घबराए न तो वह आम नागरिक होने की अपनी योग्यता खो देता है। घबराहट और बेचैनी से मेरी नींद खुल गई।
जागते ही मैंने टेलीविज़न ऑन किया तो देखता हूँ कि टेलीविज़न पर अब भी उस कार्यक्रम का सीधा प्रसारण जारी है, जिसे पिछले सड़सठ सालों से हम उनीदें देख रहे हैं।  

खान-पान के अहम् फाल्गुन नियम

प्रतीकात्मक पेंटिंग : पुष्पेन्द्र फाल्गुन  इन्टरनेट या टेलीविजन पर आभासी स्वरुप में हो या वास्तविक रुप में आहार अथवा खान-पान को लेकर त...