| (1) . कविता के साथ-साथ
हो सकता है कि अच्छी न बने कविता 
क्योंकि आँखों में नींद और सिर में भरा है दर्द 
पर स्थगित नहीं हो सकता लिखना 
लिखा था कभी 
कि जीवन की लय को पाना ही कविता है 
लय तो अभी भी टूटी नहीं 
पर सराबोर है यह कष्टों और संघर्षो से 
नहीं रोकूँगा अब इन्हें 
कविता में आने से. 
ओढ़ँगा-बिछाऊँगा 
रखूँगा अब साथ-साथ कविता को. 
जानता हूँ कठिन है 
इजाफा ही करेगी यह 
कष्टों-संघर्षो में 
लेकिन मंजूर है यह. 
साथ रही कविता तो 
भयानक लगेगी नहीं मौत भी 
कविता के बिना लेकिन 
रास नहीं आयेगा जीवन भी. (2). कठिन विकल्प
गुजरता हूँ जब गहन पीड़ा से 
जन्म लेती हैं तभी, महान कविताएँ 
इसीलिये नहीं करता मन 
भागने का, अब कष्टों से 
चुनता हूँ वही विकल्प 
जो सर्वाधिक कठिन हो. 
हताशा लेकिन होती है 
शक्ति के अभाव में जब 
चिड़चिड़ा उठता है मन. 
होती महसूस तब 
प्रार्थना की जरूरत 
इसलिये नहीं कि कम हो जायँ दुख-कष्ट 
बल्कि शक्ति मिले उन्हें सहने की. 
इसीलिये बार-बार 
हार कर भी आता उसी जगह पर 
चुनता हूँ कठिन विकल्प 
स्वेच्छा से दुख-कष्ट. 
फीनिक्स पक्षी की तरह 
मरता हूँ बार-बार 
जीता हूँ फिर-फिर 
अपनी ही राख से. (3). अंतहीन यात्रा
जब भी लगता है सब ठीक-ठाक 
और नहीं घेरती मन को चिंता 
घबरा जाता हूँ अचानक 
टटोलता हूँ अपनी सम्वेदनाएँ 
कि मरीं तो नहीं वे! 
दरअसल समय इतना कठिन है 
कि चिंतामुक्त रहना भी अपराध है 
मिले हैं मुङो विरासत में 
प्रदूषित पृथ्वी और रुग्ण समाज 
खूब कमाना और खूब खाना ही है 
मेरे समकालीनों का जीवन लक्ष्य 
कि त्याग का मतलब अब 
तपस्या नहीं पागलपन है 
फिर कैसे रह सकता भला मैं चिंतामुक्त! 
इसीलिये आता जब 
कभी क्षण खुशी का 
होता भयभीत भी हूँ साथ ही 
कि पथरा तो गईं नहीं सम्वेदनाएँ! 
टूटता है बदन और 
आँखें भी बोङिाल हैं नींद से 
फिर भी लिखता कविता 
डरता हूँ सोने से 
कि नींद अगर रास्ते में आ गई 
तो शायद कभी न हो सवेरा. (4) . ग्लोबलाइजेशन
खुश होता था कभी 
ग्लोबलाइजेशन के नाम से 
इसी के तो देखता था 
सपने साहित्य में 
दुनिया सब एक हो 
सबमें हो भाई-चारा 
करें सब विकास मिल. 
लेकिन मैं ठगा गया 
नाम तो वही था पर 
छद्म वेश धारण कर 
कोई और आ गया. 
करता ही जा रहा यह 
हत्याएँ गाँवों की 
नष्ट कर सब संस्कृतियाँ 
अपने ही पैर यह 
फैलाए जा रहा 
अरे, कोई मारो इसे 
यह तो हत्यारा है! 
नष्ट करता जा रहा 
खेत-खलिहानों और 
गाँवों-जवारों को. 
सुनता पर कोई नहीं चीख मेरी 
शामिल हैं लोग उसके साथ सब 
लड़ते हैं गुरिल्ला जो 
लैस वे भी दीखते हैं 
उसी के हथियारों से. (5). महँगा सौदा
कारण तो कुछ भी नहीं 
खुश है पर आज मन. 
बैठता जब सोचने 
आता है याद आज 
घटी नहीं कोई दुर्घटना 
नींद में भी आया नहीं 
कोई दुस्वप्न. 
जानता हूँ ऐसा तो 
था नहीं हमेशा से 
घोर अभावों में भी 
मिलती थी नींद भरपूर कभी. 
दूर अब अभाव सारे कर लिये 
सुविधाएँ हासिल सब हो गईं 
लेकिन जो पास था सुकून तब 
दूर वही हो गया 
जाना पड़ता है अब 
हँसने को लाफ्टर क्लब 
आती नहीं नींद गोलियों से भी 
तरक्की तो हो रही है रोज-रोज 
तेजी से भागता मैं जा रहा 
छूटता ही जा रहा पर 
सुख-चैन पीछे. 
सोचता हूँ कभी-कभी 
सौदा महँगा तो नहीं! (6). जीवंत कविता
करता था कोशिश जब 
खिलने की कविता 
भागती थी दूर वह 
परछाईं सी आगे-आगे 
छोड़ लेकिन पीछा जब 
शुरू किया जीना तो 
पीछे-पीछे रहती वह 
हरदम परछाईं सी. 
मिलते ही अब तो 
फुरसत के पल-दो पल 
लेते ही कापी पेन 
लिखे चला जाता हूँ 
रुकने का नाम ही अब 
लेती नहीं कविता. 
होड़ मची रहती है 
आगे निकलने की 
लिखने और जीने में. 
जान गया हूँ अब यह 
नाभिनालबद्ध है 
जीवन से कविता 
इसीलिये जीता हूँ 
लिखने के पहले इसे 
कविता सा बन गया है जीवन अब 
हो गई है जीवंत कविता भी. (7). निशाचर
पढ़ते हैं बच्चे जब किताबों में 
कि मिलती है ताजगी- 
उठने से तड़के 
लगती यह बात उन्हें 
किस्से-कहानियों की. 
जानता हूँ समझाना व्यर्थ है 
इसीलिये करता हूँ कोशिश 
खुद कर दिखाने की. 
हमला लेकिन इतना जबर्दस्त है 
कि टिक नहीं पाती हैं 
मेरी अच्छाइयाँ. 
चुम्बक जैसे रहते हैं चिपके 
टीवी से देर रात 
फैशन बन गया करना 
डिनर आधी रात को. 
नींद नहीं होने से 
बेहद कठिन होता है 
उठना सुबह-सुबह 
उनींदी आँखों से ही 
भागते हैं स्कूल वे. 
बेमानी हो गईं 
कहानियाँ रामायण की 
काल्पनिक से लगते हैं राम-कृष्ण 
बनते ही जा रहे अब 
बच्चे निशाचरों से. (8). दोष-पाप
अविश्वास तो रहा नहीं 
जरूरत भी लेकिन कभी 
पड़ी नहीं ईश्वर की 
ढोता रहा सलीब अपनी 
लज्जास्पद लगता था 
पापों को अपने 
ईश्वर को सौंपना. 
देखा पर उस दिन जब 
आलीशान गाड़ी में 
सवार परिवार को 
दे रहा था टुकड़े जो रोटी के 
बाजू में खड़े उस भिखारी को 
सिर से उतार अपने पाँव तक 
दूर करने दोष-पाप 
काँप गया भीतर तक. 
फटेहाल है जो पहले से ही 
कैसे भिखारी वह ङोलेगा 
बड़े-बड़े पापियों के दोष-पाप! 
याद आया ईश्वर तब 
हाथ जोड़ पहली बार 
करने लगा प्रार्थना 
संचित हों मेरे अगर पुण्य कुछ 
मिलें वे इस कृषकाय भिक्षुक हो. 
लालसा मुङो नहीं सुख-सुविधा की 
पाता पर जैसे मैं 
मिलती रहे भिक्षुक को भी दाल-रोटी 
ङोलना पड़े न उसे 
दूसरों का दोष-पाप 
इसीलिये करता अर्पण उसको 
अपना सब पुण्य कार्य. (9) . आत्म संघर्ष-1
हर गलती मुङो असहज कर देती है 
अन्याय-अत्याचार देख खौल उठता है खून 
लेकिन देखता हूँ जब ध्यान से 
दिखाई देती हैं उसकी जड़ें 
मेरे भीतर भी. 
अनगिनत बारीक नसें 
पहुँचाती हैं मेरा भी खून 
करती हैं पोषण 
अत्याचार के उस वृक्ष का 
और रुक जाते हैं हाथ 
करने से प्रहार 
उसकी मोटी जड़ पर 
क्योंकि लगते ही घाव उस पर 
तेजी से बहेगा खून 
मेरे शरीर से 
सम्भव नहीं है ऐसे 
लड़ना अपने आप से. 
इसीलिये काटता हूँ 
अपनी बारीक जड़ें 
जुड़ीं जो उस वृक्ष से 
होता लथपथ खून से. 
काटे बिना लेकिन 
अपने को उस वृक्ष से 
सम्भव नहीं लड़ना अत्याचार से (10). आत्म संघर्ष-2
तरक्की तो हो रही है रोज-रोज 
बाहर भी भीतर भी 
शांति नहीं मिलती पर मन को 
भटक गई सी लगती है 
दिशा विकास की. 
जितना ही बढ़ता हूँ आगे 
खाई भी बढ़ जाती है 
संगी-साथियों के बीच 
पाता जिन्हें आसपास 
अजनबी वे लोग हैं. 
भेद तो लिया है चक्रव्यूह को 
कहलाते लोग जो बड़े-बड़े 
जान गया राज उनका 
पहुँच गया आसपास 
इस्तेमाल किये बिना 
उनके हथियारों का. 
चाहता बताना अब 
अपने संगी-साथियों को 
आगे बढ़ने का ठोस रास्ता 
चाहिये जो इसके लिये 
मेहनत भरपूर उनके पास ह 
जरूरत नहीं है छल-छद्मा की 
पोली होती है नींव जिसकी. 
तोड़ते ही नहीं पर वे 
दायरे को अपने 
बना नहीं पाते हृदय को उदार 
बुनियादी फर्क नहीं दीखता 
उनके और बड़ों के बीच 
मिल गई इन्हें जो धन-संपदा 
भेद नहीं कोई रह जायेगा 
इनके-बड़ों के बीच 
अजनबी से ये भी बन जायेंगे. 
चाहता हूँ इसीलिये 
स्वेच्छा से लौटना 
रास्ता बताना उन्हें 
आगे बढ़ने का नया 
ताकि आगे बढ़ कर वे 
बन न जायँ उन्हीं बड़ों जैसे ही 
खो न जाय उनकी भी मनुष्यता 
महँगा है सौदा वह. 
उतर नहीं पाता हूँ नीचे पर 
पहले की तरह दुख-तकलीफों को 
ङोल नहीं पाता हूँ शिद्दत से. 
बढ़ता हूँ जितना ही आगे 
उतने ही दूर होते जाते संगी-साथी 
भीड़ बढ़ती जाती अजनबियों की आसपास 
बढ़ती जाती है बेचैनी भी साथ-साथ 
इससे बचने का कोई 
देता सुझाई नहीं रास्ता. 
(इसी वर्ष प्रकाशित कविता संग्रह 'माँ के लिए' से) | 
मंगलवार, 18 दिसंबर 2012
हेमधर शर्मा की दस कविताएँ
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