सोमवार, 17 दिसंबर 2012

पिता

दिया मिश्रा का शीर्षक विहीन फोटोग्राफ 



पिता को हम चाहें न चाहें 
पिता हमें चाहें न चाहें 
वे हमारे पिता होते ही 
हमारे स्थायी पता हो जाते हैं।

पिता की उंगलियाँ पकड़कर 
हमने चलना सीखा हो कि न हो 
पिता ही हमारी ज़िन्दगी में 
रास्तों की वजह बनते हैं।

पिता ने गिरने से संभाला हो कि न हो 
गिरने के बाद और गिरते हुए भी 
और गिरने से बच जाने के बावजूद 
शिद्दत से हमें याद आते हैं पिता।

पिता अच्छे या बुरे नहीं होते 
पिता सच्चे या झूठे नहीं होते 
पिता या तो पिता होते हैं 
या फिर पिता नहीं होते।

जिस दिन पिता हमारी ज़िन्दगी से चुक जाते हैं 
उसी दिन से दुनियादारी की मुर्गियाँ 
रोज़-रोज़ चली आती हैं 
चुगने हमारा बचपन 

पिता का नहीं होना 
बेपता हो जाना नहीं होता है 
लापता हो जाना भी नहीं होता है 

पिता का नहीं होना 
हमारी ज़िन्दगी में चस्पा कर जाता है 
एक ऐसा रिक्त स्थान 
जिसे भरना सिर्फ 
और सिर्फ पिता को ही आता है।

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                                                                                                                      (शीघ्र प्रकाश्य संग्रह से)

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