मंगलवार, 22 मार्च 2011

कविता




वह एक अट्ठाइस-तीस के दरमियानी नौजवान था।
वह मुझे रोजाना मिलता बाग में फूलों को देखकर मुस्कुराता हुआ।
मैं जब पहुँचता वहाँ तो वह बस मुस्कुरा रहा होता
मैं जब लौटता वहाँ से तो भी वह बस मुस्कुरा रहा होता।
एक दिन बगीचे के चौकीदार ने बताया
'वह आँखों से नहीं देख सकता'
मैंने देखा, वह उस समय भी देख रहा था फूलों को।
मुझे करीब पाकर वह बोला,
'मुस्कुराने के लिए भला आँखों का भी कोई काम है'
उसकी बात सुनकर मैं जोर से हँस पड़ा था
इतनी जोर से कि मेरी हँसी की आवाज सुनकर
उसने अपनी मुस्कुराहट को और चौड़ा कर लिया था
और फिर मेरे साथ
वह भी जोर - जोर से हँसने लग पड़ा था
इतनी जोर से कि
बगीचे का बूटा-बूटा मुस्कुरा पड़ा था।

बगीचे जाने के नाम से ही अब मेरे लबों पर कौंध पड़ती मुस्कुराहट
वहाँ वह दिखाई देता तो मुस्कुराहट हँसी में बदलती
और फिर रोज-रोज हमारे साथ मुस्कुराती यह दुनिया।

एक दिन मैंने उसे बताया कि मैं लिखता हूँ कविता
तो वह उदास हो गया
वह उदास हो गया तो मैं उदास हो गया
मैं उदास हो गया तो मेरी कविता उदास हो गई
फिर हमारी उदासी से उदास हो गई यह दुनिया
और एक दिन उदास-उदास स्वर में
अत्यंत वेदना के साथ उसने पूछा मुझसे
'कविता में भला लिखने का क्या काम'
उसका सवाल सुन मैं हँस पड़ा जोर से
इतने जोर से कि मुस्कुरा उठा वह
और उसको मुस्कुराते देख मेरी हँसी की तान और बढ़ गई
और मुझे हँसते देख जोर-जोर से वह भी खिलखिलाकर हँस पड़ा
इतनी जोर से कि खिलखिला उठी दुनिया।

उस दिन शाम को मैं अपनी लिखी कविताओं को झोंक आया हूँ
फुटपाथ पर झोपड़ा बनाए उस भिखारी के चूल्हे में
चूल्हें में बनावट की ईंधन ने कमाल किया
और चूल्हे से चट-चट की आवाज के साथ जोर से जलने लगे मेरी कविताओं से रंगे पन्ने
इतने जोर से कि उस भिखारी के चारों बच्चे खिलखिलाकर हँस पड़े
और अपनी मुट्ठी में चूल्हे की तेज लौ पकड़ने का खेला खेलने लगे

उस दिन नींद के पहले बच्चों को मिल गया था खाना।

                                                                                   - पुष्पेन्द्र फाल्गुन 

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