शुक्रवार, 4 मार्च 2011

ये खन्ना जी हैं, नहीं रघुबीर सिंह हैं

नागपुर, संतरा नगरी नागपुर, आदिवासी गोंड राजाओं द्वारा तीन सौ साल पहले बसाया गया एक ऐसा शहर जिसकी तासीर में वह सबकुछ है, जो एक शहर को शहर बनाए रखने के लिए होनी चाहिए. रघुबीर सिंह चालीस की उम्र में नागपुर आये. पिता इन्हें ट्रांसपोर्ट व्यवसायी बनाना चाहते थे, लेकिन वे इस दांवपेंच भरे व्यवसाय से दूर ही रहना चाहते थे. रघुबीर सिंह का परिवार तकसीम के बाद रावलपिंडी से पहले दिल्ली और फिर जबलपुर आया. सभी भाई अलग-अलग पेशों में 'फिट' हो गए. तकसीम के समय तक रघुबीर सिंह, बर्मा में इंजीनिअरिंग मिलिटरी सर्विस में बतौर इंजीनिअर कार्यरत थे. वहाँ ड्यूटी के दौरान हुए हादसे के बाद अँगरेज़ आला अधिकारियों और जापानी सहयोगियों द्वारा दिखाई गई उपेक्षा और बेपरवाही से बगावत कर उन्होंने नौकरी त्याग दी. जबलपुर आये.  पिता ने ट्रांसपोर्ट व्यवसाय से जोड़ लिया. उनदिनों नागपुर मध्यप्रदेश की राजधानी था. रघुबीर सिंह की लारियाँ नागपुर से सामान लेकर जबलपुर आया-जाया करतीं. ब्रेक- डाउन अथवा वसूली के लिए उन्हें भी नागपुर आना-जाना पड़ता. उनदिनों अपनी बुलेट मोटर साइकल से रघुबीर सिंह खन्ना महज साढ़े चार घंटे में लगभग पौने तीन सौ किलोमीटर की दूरी तय कर लेते थे. एक दिन एक व्यापारी से माल लदाई को लेकर ठन गई, सो इस व्यवसाय को ही उन्होंने राम-राम कर लिया.
रघुबीर सिंह किशोरावस्था से ही वामपंथी रूझान रखते रहे. जबलपुर में वामपंथी माहौल बनाने में इनका भी अविस्मरणीय योगदान है. आज रघुबीर सिंह ८८ बरस के हैं. उनकी पीढ़ी के वामपंथी, फिर चाहे वे जहां भी हों, रघुबीर सिंह को भूले नहीं होंगे. जब वामदलों में तकसीम हुई तो रघुबीर सिंह ने दोनों ही पार्टी से किनारा कर लिया. एक इंसान जिसने देश और दिल के तकसीम को देखा-भुगता था, मानो अब किसी और बंटवारे के लिए तैयार न था.
इस दुःख से उबरने के लिए ही उन्होंने नागपुर आकर भाई के प्रकाशन व्यवसाय को संबल देने का निश्चय किया, लेकिन यहाँ पहुंचकर जो चुनौतियां उन्होंने देखी-झेली, उसने उन्हें अपना प्रकाशन संस्थान शुरू करने के लिए प्रेरित किया.
खन्ना जी के नाम से प्रकाशन व्यवसाय में ख्यात रघुबीर सिंह को अपने ख्यात नाम की जगह अपना मूल नाम ही पसंद है. मैं उन्हें गत बीस वर्षों से जानता हूँ, लेकिन आज तक मैंने उन्हें कभी किसी की निंदा करते अथवा किसी के लिए अपशब्द कहते नहीं सुना. आपसे यदि वह कोई बात कहेंगे तो शुरू कुछ इस तरह करेंगे, 'मैं आपसे अर्ज़ करता हूँ कि.....' आपकी किसी बात से वे यदि असहमत हुए और गुस्सा भी गए तो आपको सेठ साहब कह देंगे.
इनदिनों वे अपनी पुस्तक दूकान को नए सिरे से सवारने में लगे हुए हैं. कहते हैं किताबों और पाठकों के बीच में जितना ज्यादा स्पेस होगा उनमें उतना ही संवाद की संभावना बनेगी. उनकी दूकान में बहुत-बहुत सी किताबें हैं, लेकिन उन किताबों तक पहुँचने के लिए पाठकों को ज़रा मशक्कत करनी पड़ जाती थी, सो उन्होंने नया इंतजाम कर दिया.
रघुबीर सिंह ने ही गजानन माधव मुक्तिबोध की पहली किताब 'भारत : इतिहास एवं संस्कृति' को १९६२ में प्रकाशित किया था. उस समय डाक्टर शंकर दयाल शर्मा मध्यप्रदेश के शिक्षा मंत्री थे और उन्होंने इस किताब की अहमियत समझ कर इसे 'टेक्स्ट बुक' की तरह पाठ्यक्रम में शामिल किया था. जब किताब छपी तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नागपुर से छपने वाले दैनिक मुखपत्र 'युगधर्म' ने इस किताब की प्रसंशा में कसीदे पढ़े, लेकिन जैसे ही यह किताब पाठ्यक्रम में शामिल हुई, 'युगधर्म' ने हाय-तौबा मचा दी. आर.एस.एस के इशारे पर जनसंघियों ने इस किताब की होली जलाई और सरकार से तुरंत इसे पाठ्यक्रम से हटाने की मांग करते हुए हिंसक आन्दोलन करने लगे. तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री मंडलोई जी नी शंकर दयाल शर्मा जी से इसे पाठ्यक्रम से हटाने को कहा, तो शर्मा जी ने यह कहते हुए मना कर दिया कि, 'हमने ही इसे लगाया है, हम नहीं हटाएंगे, बतौर मुख्यमंत्री, गृहमंत्री, विधि मंत्री आप चाहे जो निर्णय करें.' भारत: इतिहास एवं संस्कृति को पाठ्यक्रम से हटा दिया गया. रघुबीर जी सरकार के इस फैसले के खिलाफ उच्च न्यायालय गए, न्यायालय में मुक्तिबोध जी ने भी जज महोदय को ऐसी पंद्रह पुस्तकों की सूची दी, जिन पर बैन उसी वजह से लगाना चाहिए जिस वजह से उनकी किताब पर लगा, उन पंद्रह किताबों में पंडित जवाहर लाल नेहरु और श्यामाप्रसाद मुखर्जी कि किताबें भी थी. उच्च न्यायालय ने भारत: इतिहास एवं संस्कृति को 'टेक्स्ट' की बजाय 'रेफरेंस' बुक मानने की सालाहियत दी. यह मामला १९६४ में ख़त्म हुआ. इस किताब का सम्पादन हरिशंकर परसाई जी ने किया था.
रघुबीर सिंह को और एक किताब को लेकर अदालत के चक्कर लगाने पड़े, और उस मामले में भी अदालत ने यही कहा, इस किताब को पाठ्य-पुस्तक की बजाय सन्दर्भ पुस्तक माना जाए, लेकिन पुणे विश्वविद्यालय की उप-कुलपति ने यह कहते हुए अदालत के आदेश की अवेहलना की कि, 'इन जजों को क्या पता कि विद्यार्थियों के लिए कौन सी किताब अच्छी है और कौन सी नहीं.' ये उप-कुलपति महोदय थे प्रोफेसर कुलकर्णी, उन्होंने विवादित किताब को पाठ्य-पुस्तकों की सूची से हटाने से मना कर दिया. बाद में कई अन्य विश्विद्यालयों ने भी उक्त विवादित किताब को बतौर पाठ्य-पुस्तक अपने-अपने पाठ्यक्रम में शामिल किया, और आज भी उक्त किताब महाराष्ट्र के कई विश्विद्यालयों में बतौर पाठ्य-पुस्तक शामिल है. उक्त किताब है' मध्य युगीन भारताचा इतिहास' और इसके लेखक हैं एम्. एम्. देशपांडे. किताब पर इसलिए विवाद था कि इस किताब के जरिये लेखक दुनिया के सामने इस मिथ पर से पर्दा उठा रहे थे कि संत रामदास छत्रपति शिवाजी के गुरु नहीं थे. यह किताब रघुबीर सिंह खन्ना ने १९७१ में छापी थी और १९७२ में अदालत ने इसे रेफरेंस बुक करार दिया था. आज भी स्नातकीय पाठ्यक्रम में यह पुस्तक विद्यार्थियों को सही जानकारी दे रही है और भारत: इतिहास और संस्कृति किताब की दूकानों में पड़ी धूल खा रही है. सिर्फ हिंदी बेल्ट की भीरुता की वजह से.
रघुबीर जी से मिलेंगे तो वे भी यही अफ़सोस आपसे जाहिर करेंगे. 

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