रविवार, 6 मार्च 2011

डरपोक हम


कितना डरते हैं हम, हर बात पर, हर समय, बस डर और डर 
ऐसा करने में डर, वैसा करने डर
यह करने में डर, वह करने में डर
ऐसा बोलने में डर, वैसा सुनने में डर
यह बताने में डर, वह पूछने में डर
यह दिखाने में डर, वह देखने में डर
उफ्फ, कितना डरते हैं हम
और हर क्षण बस मुर्दा होकर जीते हैं
मुर्दा जीवन, मुर्दा इंसान, मुर्दा इंसानियत

गब्बर अंकल दशकों पहले कह गए हैं
'जो डर गया, समझो मर गया'

हालांकि गब्बर अंकल भी मर गए हैं
लेकिन डरते हुए नहीं मरे
जो डरता है, वह हर क्षण मरता है
हर कदम पर मरता है, हर शै मरता है

मौत से पहले मरना बंद करो
अब डरना बंद करो

सोचो कि हमारी तरह ही यदि
ये पेड़ डरते
तो बताओ क्या कभी ये बढ़ते
फलते-फूलते
छाया देते-ऑक्सीजन देते

सोचो कि हमारी तरह ही यदि
ये नदी डरती
तो बताओ क्या ये कभी बढ़ती
सागर से मिलती
और हमारा जीवन क्या इतना पानीदार हो पाता

डर हमारी प्रगति रोकता है
डर हमारी नियति रोकता है

डर हमें यथास्थितिवादी बनाता है
डर हमें फरियादी बनाता है

डरना बुरा नहीं
डर से चिपके रहना बुरा है
डर से उबरने की कोशिश ही नहीं करना बुरा है

जो डर से उबरने की रंचमात्र भी कोशिश करते हैं
एक पल में ही वे डर को डरा रहे होते हैं

आइये डर को डराएँ...




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